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________________ पूर्व कर्मोदय से महिपाल नृप के पूरे शरीर में यकायक कुष्ठ रोग-चर्मरोग उत्पन्न हो गया। उसकी प्रचण्ड बदबू कोई नहीं सह पाते थे, जिससे स्वयं नगर के बाहरी प्रदेश में चले गए। शत्रुजय तीर्थ पर चैत्र मास की अट्ठाई का महोत्सव चल रहा था। अनेक विद्याधर-विद्याधरियां, विद्याधर युगल महोत्सव में शामिल हुए। सब प्रभु भक्ति-पूजा में लीन थे। चारों ओर प्रभु की पावन निश्रा का हर्षोल्लासमय-पुनीत वातावरण उभर रहा था। उसमें एक विद्याधर युगल भी शामिल था, जो अपने भक्तिभाव से प्रसन्नतापूर्वक विचरण कर रहा था। विद्याधर ने अपने प्रियतम से विनम्र स्वर में थोड़ा और रुकने को कहा। उन्होंने सूर्यकुण्ड में सान किया, विद्याधर युगल ने ऋषभदेवजी की स्नात्रपूजा शुरू की। प्रभु की मणिमय प्रतिमाजी को पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से शांतिकलश के जल से प्रक्षालन किया। अन्य विविध पूजा विधि सम्पन्न की। जाते समय विद्याधर ने शांतिकलश को शांतिजल से भर लिया। अप्रतिम श्रद्धा से सूयकुंड का पानी उन्होंने शांतिकलश में अपने साथ ले लिया। दोनों ने प्रस्थान किया। रास्ते में उन्हें महिपाल नृप की तीव्र वेदनायुक्त आवाज सुनाई दी। तीव्र वेदना से वह छटपटा रहा था। पीडायुक्त आवाज से विद्याधरी का करुणाशील हृदय हिल गया। उसने विद्याधर से पूछा, तब उन्होंने बतलाया कि ये महीपाल नृप हैं। उनके पूर्वजन्म के वेदनीय कर्म उदय में आये हैं। उनका पूरा शरीर कुष्ठरोग से व्याप्त है। उसकी पीड़ा भयंकर तीव्र होती है। यह असाध्य रोग है, फिर भी उसका एक उपाय है। सूर्यकुंड के पानी के स्पर्शमात्रा से ही रोगीष्ठ निरोगी, स्वस्थ हो जाता है। विद्याधरी की खुशी की कोई सीमा न रही क्योंकि वह पानी तो उनके पास मौजूद ही था। विद्याधरी ने शांतिकलश के पानी से छिड़काव किया और चामत्कारिक रूप से महिपालनृप सम्पूर्ण निरोगी हो गये। सूर्यकुंड के पानी के स्पर्शमात्र से राजा के शरीर वासित अट्ठारह प्रकार के कुष्ठ रोगों ने आकाश की ओर जाते हुए कहा, "राजन्! अब तेरी जयकार हो। अब तू हमसे मुक्त है। तुझसे मेरा सात जन्मों से वैर था मगर इस पवित्र सूर्यकुंड जल के प्रभाव से हमारा प्रभाव निरर्थक हुआ, जिससे अब हम यहां नहीं ठहर सकते।" और वे चले गये। विविध प्रकार से हर्षोल्लास मनाया गया। एक बार चारण मुनि वहां पधारे। राजा ने भक्तिभावपूर्वक वंदन किया और आहार से प्रतिलाभित किया। मुनि ने कुष्ठरोग के कारण का निवारण करते हुए कहा, "इस पूर्व के सातवें जन्म में आप राजा थे और मृगया के अति शौकीन थे। मृगया खेलते हए आपने एक मुनि का घात किया था, जिससे आपने मुनि हत्या का पाप ग्रहण किया था। क्रमशः पापकर्मों का क्षय होता गया मगर जो बचे थे, उनके कारण तुम्हें यह कुष्ठ रोग हुआ था। राजा को जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वजन्म देखते ही मन के परिणाम में बदलाव आ गया। चतुर्विध संघ के साथ शत्रुजय तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया। वहां प्रभुजी के विविध प्रकार के महोत्सव मनाए। स्वयं चारित्र ग्रहण किया। आमरणांत अनशन व्रत ग्रहण किया। मोक्ष-सिद्ध पद प्राप्त कर लिया। 112 पटदर्शन
SR No.032780
Book TitlePat Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana K Sheth, Nalini Balbir
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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