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________________ गया, कुछ समझ नहीं पाया। आंखें मूंदकर आत्मनिन्दा करने लगा'' धिक्कार है मुझे! क्या मैं एक अबला से पराजित हो गया?" जब आंख खुली तब न तो वहां गाय थी, न तो स्त्री और न ही तो खड्ग का प्रहार। वह सोचने लगा, यह स्वप्न है या और कुछ। उसी समय उनकी गोत्रदेवी अम्बिका प्रत्यक्ष हुई। उसने नृप को संबोधित करके कहा, "हे राजन्! अभी तू धर्मकार्य के लिए योग्य नहीं है। तेरे पाप कर्मोदय का क्षय नहीं हआ है। अभी तू छह मास तक पृथ्वी पर अपने पापों की आलोचना करता घूमता रहेगा। अपना दुःख क्षमा, समताभाव से निर्वहन कर। विविध तीर्थों की यात्रा-पूजा इत्यादि धर्मकाय में प्रवृत्त हो। जब तेरे पापकर्म क्षय हो जायेंगे, तुझमें समता-क्षमाभाव जागृत होगा, तब मैं स्वयं तुझे उत्तम स्थानक पर ले चलूंगी।" और वह अन्तान हो गई। नृप ने देवी के कथन पर चिन्तन किया। उसे छह मास का समय पूरा करना था। वह समता भाव से सब कष्टों को सहन करता रहा। छह मास पूर्ण हो गये थे। चलते-चलते सूर्यास्त हो गया। घने वन में रात्रिवास का निर्णय किया। वृक्ष तले पत्तों का बिछौना बनाकर बैठा और सोचने लगा, "अभी भी मेरे कर्मों का क्षय नहीं हुआ है, मुझमें समता-भाव जागृत नहीं हुआ है। अगर ऐसा होता तो देवी स्वयं आकर मुझे धर्मस्थानक की ओर ले जाती।" सोचते-सोचते निद्राधीन हो गया। उसी समय पूर्वजन्म का वैरी राक्षस उधर आ पहुंचा और कहने लगा, "पूर्वजन्म में तूने कामांधता से मेरी स्त्री को ग्रहण किया था, और मेरा सर्वस्व लूट लिया था इस कुकर्म का फल अभी उदय में आया है। आज तूझे उस कार्य की शिक्षा मिलेगी।" वह उस नृप को उठाकर पर्वत की ओर ले जाने लगा। उसने सोचा, "इसका क्या करूं? इसकी जान ले लूं या इसके सहस्र टुकड़े करूं, फिर भी मेरा क्रोध शांत होने वाला नहीं है।" उसने अपनी दैवमाया से पर्वत के पत्थर पर नुकीले धारदार लोहे के कीलें बनाई। जिस तरह धोबीकार कपड़े धोते समय कपड़े को फटकते हैं, उसी तरह वह राक्षस नृप के शरीर को नुकीली कीलों पर फटकने लगा। उसने राजा के साथ अति क्रूर अत्याचार किया, फिर भी राजा क्षमाशील ही रहा, उसमें जरा भी कषाय उत्पन्न नहीं हुआ। अब उसका कषाय-पापकर्म क्षय हो रहा था। इस तरह राक्षस ने राजा को चार प्रहर तक विविध उपसर्ग किये, फिर वह स्वयं थक गया और राजा को उसी वृक्ष के नीचे छोड़कर चला गया। प्रभात हुआ। अब गोत्रदेवी अंबिका प्रत्यक्ष हुई। उसने कहा, "सोरठ देश के पुंडरीक पर्वत पर तू यात्रा करने जा। वहां तू चारित्र ग्रहण करके सूर्य आतापना कर। आज से सातवें दिन तेरे सर्व कर्मों का क्षय हो जाएगा और तू मोक्ष-सि करेगा।" आज उसका सातवां दिन है, ऐसी बात चल रही थी, उतने में ही उसे केवलज्ञान प्राप्त हुआ। यह पुंडरीक गिरिसिद्धाचलजी का मुख्य प्रताप है, यह तीर्थ अनुपम सौन्दर्य एवं पवित्रता का प्रतीक है, जहां ऐसे भारी कर्मी जीव भी सरलता से कर्म क्षयोपशम से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। सूर्यकुंड महिमा महिपाल नृप कथा प्रस्तुत महिपाल नृप कथा में शत्रुजयगिरि स्थित सूर्यकुंड की महिमा को प्रदर्शित किया गया है। वास्तव में जैन परम्परा में महिपाल नृप कथानक एक विस्तृत और विख्यात कथानक है। यहां इस कथानक संक्षेप में सूर्यकुंड का माहात्म्य प्रतिपादित करने निरूपित किया गया है। सौधर्म गणधर ने भगवान महावीर से शत्रुजयतीर्थ माहात्म्य विषयक प्रश्न पूछा, इसी के प्रत्युत्तर में यह कथा प्रस्तुत की गई है। पटदर्शन - 111
SR No.032780
Book TitlePat Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana K Sheth, Nalini Balbir
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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