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________________ नारद मुनि मोक्ष गमन जहि रामाइतिकोडी-इगनवई, नारयाइ, मुणिलक्खा। जाया य, सिद्धराया, जयउ तयं, पुंडरी तित्थ।। अर्थ- जिस स्थान से राम आदि तीन करोड़ और नारदमुनि आदि 91 लाख सिद्धों के राजा हुए, वह पुंडरीक तीर्थ जयवंत हो। नारद की देहकांति अनुपम, दैदीप्यमान थी। वह अरिहंत धर्मप्रेमी थे। वे प्रतिदिन चारित्रधारक मुनियों-भगवंतों की भक्तिभावपूर्वक वंदना-पूजा करते थे। उन्होंने शौच धर्म विषयक अच्छा संशोधन किया था। उनके मतानुसार शौच स सच है, इन्द्रिय निग्रह है, दया भाव है और पानी शौच है। उन्होंने अपने काल के तीर्थकर भगवंतों से शत्रुजय तीर्थ की महिमा को जाना। पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए लोगों को प्रतिबोधित करते रहे। नेमिनाथ प्रभु से द्वारिका दहन और यादवकुल क्षय के समाचार प्राप्त करते हुए नारद शत्रुजय गिरि पहुंचे। वहां ऋषभदेवादि तीर्थंकर की पूजा-अर्चना भक्ति की। वहां रामपुरी नगरी के नृप मदनमंडप सात करोड़ श्रावकों के साथ तीर्थयात्रा के लिए आये थे। नारद ने उन सबको शत्रुजय तीर्थ की महिमा से अवगत किया। इससे प्रतिबोधित होकर अनेक लोगों ने संयम-चारित्र धर्म अंगीकार किया। अपनी शाश्वतता की निंदा करते हए संसार भ्रमण अवरोधक अनशनव्रत ग्रहण किया। चार शरण अंगीकृत करते हुए मन, वचन, काया का शुद्धिपूर्वक चार कषायों का त्याग किया और नारद ने दस लाख साधुओं के साथ शत्रुजयगिरि पर मोक्षपद प्राप्त किया। इस तरह अन्य आठ नारद क्रमशः अपने अन्य मुनिगणों के साथ कर्मक्षय करते हुए मुक्तिनगरी पहुंचे। इस तरह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में कुल नव नारदों ने कुल 91 लाख मुनियों के साथ शत्रुजय तीर्थ पर मोक्ष प्राप्त किया है। नव नारद 91 लाख मुनियों के साथ शत्रुजय से सिद्धगिरि पहुंचे हैं। पांच पांडव मोक्ष गमन कय जिण पडिमुद्धारा, पंडवा जत्थ वीसकोडिजुआ। मुत्ति निलयं पत्ता, तं सित्तुजयं मह तित्थं।। अर्थ- जिन्होंने प्रतिमा का उद्धार किया है, उन पांडवों ने जिस स्थान से बीस करोड़ मुनिगणों सहित मुक्ति रूपी आवास प्राप्त किया है, वह शत्रुजय तीर्थ महातीर्थ है। एक बार जराकुमार ने पांडवों को द्वारकादाह प्रसंग से अवगत किया। उसने एक श्रेष्ठतम, कांतियुक्त कौस्तुभ मणि भी पांडवों को दिखलाया। यह देखते ही युधिष्ठिर प्रमुख पांडव शोकार्त हो गये। उन्होंने सोचा, "हमने अनेक बार युद्ध-संग्राम किया है। दुर्योधन के साथ युद्ध करते समय अनेक प्राणों का घात किया है, जिससे तीव्र पापानुबन्ध कर्म किये हैं। लंबे समय तक हमने राज्य-ऋद्धि-समृद्धि का उपभोग किया है। अब तो समय आ गया है विरक्त-अनासक्त होने का। अगर अब जो राज्य नहीं छोड़ेंगे, तो निश्चित रूप से हमें नरकवास ही भुगतना होगा।" कहा गया है विना न तपसा पाप-शुद्धिर्भवति कर्हिचित्। वसनं मलिनं शुद्ध-वारिणा नैव जायते।। अर्थ- बिना तप कृत पापों की शुद्धि नहीं होती है, जैसे मलिन वस्त्र बिना पानी शुद्ध नहीं होता। पांडवों ने द्रौपदी और कुंती के साथ चारित्रधर्म अंगीकार किया। जिनागम शास्त्राभ्यास करते हुए तीव्र तपाराधना करने लगे। लोगों को प्रतिबोध करते हुए विचरण करते थे। मासखमण की तपश्चर्या चालू ही थी। विचरण करते हुए क्रमशः हस्तिनापुर पटदर्शन 109
SR No.032780
Book TitlePat Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana K Sheth, Nalini Balbir
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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