SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने अपनी सखियों के साथ विविध धार्मिक विधियां सम्पन्न की। अपनी सखियों के साथ वह सूर्यकुण्ड पहुंची और उसने कुर्कुट वाला पिंजर खोल दिया। चंद्रनृप रूपी कुर्कुट अपनी इस अवदशा से बहुत दुःखी था। उसने सोचा, “सोलह साल से इसी अवस्था में जी रहा हूं, फिर भी मेरे कोई कर्म क्षय नहीं हए हैं। न जाने कितने और कर्म भुगतने होंगे? यह संसार तो पूरा स्वार्थी है, स्वयं माता ने ही मेरी यह अवदशा की है। यह तीर्थ स्थल अनुपम, पावन, पवित्र है, सद्भाग्य से मुझे यहां आने का शुभावसर प्राप्त हुआ है। न जाने दूसरी बार ऐसा शुभावसर मिले या नहीं? अच्छा तो यही होगा कि यहीं मैं अपने प्राण न्यौछावर करूं, ताकि इस क्षेत्र के प्रभाव से मेरे कुछ कर्म क्षय होंगे।" ऐसा सोचकर उसने सूर्यकुंड में अपने आपको समर्पित कर दिया। प्रेमलालछी यह देखते ही अवाक् हो गई। उसने सोचा, “अगर मेरा पति ही आत्मघात कर रहा है, तो मुझे जिन्दा रहने की जरूरत ही क्या है? मेरा जीना भी क्या होगा? मैं भी उसी के साथ ही अपने प्राण दे दूँ।" और वह भी पानी में कूद पड़ी। उसने कुर्कुट को झपट लिया। कुर्कुट अब जिन्दा रहना नहीं चाहता था। उसे क्या पता कि प्रेमलालछी भी उसी के साथ अपने प्राण न्यौछावर करने, बलिदान देने स्वयं उसके पीछे कूद पड़ेगी? उसने सोचा कि, "यह पकड़कर फिर मुझे पिंजर में कैद कर देगी, इससे बेहतर है, मैं स्वयं को मिटा दूं।" कुर्कुट स्वयं उससे छूटना चाहता था। दोनों झपाझपी कर रहे थे कि उसके गले का धागा टूट गया और उसने अपना असली स्वरूप मनुष्य रूप प्राप्त कर लिया। उसके कर्म पूर्णतः क्षय हो चुके थे। शासन देवता ने दोनों को कुंड से बाहर निकाला। देवताओं ने कुसुम वृष्टि से दोनों का अभिवादन किया। प्रेमलालछी और चंदराजा ने ऋषभदेव भगवान और सिद्धांचल तीर्थ और सूर्यकुण्ड के चामत्कारिक पानी का माहात्म्य, चमत्कार स्वयं महसूस किया। दोनों ने भगवान की पूजाअर्चना की। खुशखबरी मकरध्वज नृप तक भी पहुंची। नृप खूब प्रसन्न हुए और चतुर्विध संघ के साथ तुरन्त ही उस तीर्थस्थान पर पहुंच गये। संघ के साथ उन्होंने भी शत्रुजयतीर्थ पर महोत्सव किया। अनेकविध धर्मकार्य-पूजा-अर्चना इत्यादि क्रियाएं सम्पन्न कीं। महोत्सव के खत्म होते ही चंदराजा भी विमलापुरी पहुंचे। उपर्युक्त प्रसंग से शत्रुजय तीर्थ और सूर्यकुंड की महिमा स्वतः सिद्ध हो जाती है। 22. नेमिनाथ शाब-प्रद्युम्न मोक्ष गमन पञ्जुन-संब प्रमुहा कुमरवरा सइढअदठ कोडि जुआ। जत्थ सिवं संपत्ता, जयउ तयं पुडरीतित्थ।। अर्थ- प्रद्युम्न और शांब प्रमुख साढे आठ करोड़ सहित ने जहां से मोक्ष पद प्राप्त किया, उस पुंडरीक तीर्थ की जयजयकार हो। कृष्ण मुरारी के महापराक्रमी पुत्र शांब और प्रद्युम्न नेमिनाथ जिन के दर्शनार्थ आये। प्रभु ने देशना में शत्रुजय तीर्थ की महिमा प्ररूपित की। प्रभु के धर्मोपदेश सुनते ही उनके कर्मक्षय होने लगे। दोनों को चारित्र ग्रहण करने वाले उत्तम भाव उत्पन्न होने लगे। उन्होंने चारित्र धर्म अंगीकार किया। वे आठ करोड मुनियों के साथ सिद्धांचल पहुंचे। वहां उन्होंने उत्तम धर्माराधना से अपने आत्मतत्त्व को निरावरण किया। अनशनादि विविध धर्माराधना करते मोक्षपद-सिद्धगति प्राप्त की। 108 पटदर्शन
SR No.032780
Book TitlePat Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana K Sheth, Nalini Balbir
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy