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________________ हवे श्री सिधाचलजीना 21 एकवीस नी(ना)म छे, ते कहें छे। श्री सेजुंजय 1, पुंडरीकगीरी 2, सिद्धषेत्र 3, वीमलाचल 4, सुरगिरी 5, महागिरी 6, पुन्यरासी 7, श्रीपद 8, पर्वेन्द्र 9, महातीर्थ 10, सास्वतो 11, वृढसक्ति 12, मुक्तिलय 13, पुष्प्फदंत 14, महापद्म 15, प्रथवीपीट्ठ 16, सुभद्र 17, कैलासगीरी 18, पातालमुला 19, अकर्मक 20, सर्वकामद 211 नमस्कार हजो श्री सिधाचलने नमोनमः। इति श्री सिधाचलपट संपूर्णः। संवत् 1859 ना वर्षे शाके 1725 प्रवर्त्तमानें पोस मागसिर वदि 2 दिने कृष्ण पक्षेः अगस्त पुरे सुमितनाथ प्रसादेन, प्रसादातः ए पट वांचे तेहनेंः / पं. केसरविजेंनी वंदणा 1008 वार छ। श्रीः। हिन्दी अनुवाद 24. महावीरस्वामीजी आपने स्वयं अकेले ही प्रव्रज्या अंगीकार की थी। आपके परिवार में गौतम प्रमुख 11 गणधर, 14,000 साधु, 36,000 साध्वियां, 1,59,000 श्रावक और 3,27,000 श्राविकाएं थीं। आपका देहमान 7 हाथ ऊंचा था। आपका वर्ण पीत (सुवर्ण) है। आपका लांछन सिंह है। आपकी आयु पूरे 72 वर्ष की थी। विचरण करते आप श्रीसिद्धाचलजी पहुंचे। देवताओं ने समवसरण की रचना की। वहां विराजित होकर आप देशना दे रहे थे, उसी समय देव और देवता, दो मित्र-सिद्धाचलजी दर्शनार्थ पहुंचे। उन्होंने एक मुनिराज को सूर्य की आतापना लेते हुए देखा। मित्रदेवता ने देवमित्र से पूछा, "हे मित्र! इन मुनि के बारे में आप क्या कुछ जानते हैं?" देवमित्र ने कहा, "ज्यादा तो मैं कुछ नहीं जानता, मगर आज से सात दिन पहले मैं महाविदेह क्षेत्र में श्रीसीमंधरस्वामी के दर्शनार्थ गया था। वहां सुना था कि एक अधर्मी, दुराचारी, प्रजापीडक, सप्तव्यसनी नृप अपनी सभा में बैठा था, उसी समय आकाश से कल्पवृक्ष का एक पत्ता गिरा, जिसमें एक श्लोक लिखा था, जिसे पढते ही वह करकंडुनृप भयभीत होकर कांपने लगा। वह सोचने लगा, मैंने तो बहुत पाप कर्म किये हैं तो अब मुझे इस कर्म से कैसे मुक्ति मिलेगी? मुझे आत्मघात ही करना होगा, ऐसा सोचकर वह नगर बाहर निकल गया। चलते-चलते आम्र वृक्ष के नीचे आराम करने बैठा। मन में सोच रहा था, आत्मघात कैसे किया जाए? वहां ही अकस्मात् एक गाय अपने सींगें घुमाती हुई नृप को मारने के लिए दौड़ी। भयभीत होकर राजा ने खड्ग निकाला और अपने बचाव के लिए गाय पर वार किया। गाय दो टुकड़ों में विभक्त हो गई। उसमें से एक आभूषण-वस्त्र सहित सुन्दर नवयौवना स्त्री उपस्थित हुई। उसने राजा से कहा, "अरे! ये अबोल-दुर्बल गाय की तूने क्यों हत्या की? जो क्षत्रिय है, पराक्रमी है, वह कभी दुर्बल की हत्या नहीं करते। अगर तेरे में शौर्य है तो मेरे साथ युद्ध कर।" ऐसा कहते ही उसने राजा पर प्रहार किया। राजा गिर पड़ा। उसने कहा, "तेरे में शौर्य-बल है ही कहां? खुद तो गिर पड़ा।" स्त्री के कटाक्षयुक्त वचन सुनते ही राजा क्रोधित हो उठा। उसने स्वयं उठने का प्रयत्न किया लेकिन उठ नहीं पाया। नराश होकर आंखें मूंदकर सोचने लगा, "क्या एक अबला ने मुझे परास्त कर दिया?" जैसे आंखें खुली तो न तो वहां गाय थी न तो यौवना स्त्री और न कोई प्रहार। सोचने लगा, "मैंने सपना तो नहीं देखा। क्या वह इन्द्रजाल थी?" इतने में ही राजा की गोत्रदेवी अंबिका दृश्यमान हई। उसने राजा से कहा, "हे राजन्! धर्मकार्य के लिए अभी तेरा समय नहीं हआ है। तुझे अभी छ: मास भ्रमण करना होगा, विविध कष्ट सहने होंगे, तीर्थयात्रा करनी होगी। जब समता-क्षमाभाव उत्पन्न होंगे तब मैं तुझे अच्छा स्थान दिखाऊंगी।" ऐसा कहते देवी अदृश्य हो गई। पटदर्शन - 93
SR No.032780
Book TitlePat Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana K Sheth, Nalini Balbir
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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