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________________ :124 बौद्धर्म. नीवन की अवस्था को निर्वाण रूप माना गया है अर्थात् बुद्ध के अनुयाईयोंने अपने अनुभवसे देखा कि आत्मा के अविनाश रूप में और मूर्त देवता में श्रद्धा रखने की जरूरत धर्म मात्र में रही है तो भी बुद्ध को स्वयं तो ऐसा लगा था कि जीवन की घटनाएं समझने के लिये अथवा जीवन की बातों का व्यवहारिक व्यवस्था के लिये ऐसा कुछ मानने की जरूरत नहीं रहती। जीवन दुःख रूप है और इससे कोई भी मनुष्य अथवा दिव्य मूर्ति को सत्य तथा नित्य मानने से जीवन में से छूटने का काम सरल हो नहीं सकता / दूसरी दृष्टि से विचार करें तो आत्मा का निषेध करने से कोई भी अस्तित्व नहीं रह सकता और अस्तित्व न रहने से उसमें से छूटने का मार्ग भी कोई ले नहीं सकता। इसी से ऐसा माना गया है कि ' मैं , यह मायिक अस्तित्व का बोधक शब्द है और इस परसे ही ऐसी कठिनाई उत्पन्न होती है कि जो ' मैं ' का अस्तित्व नहीं तो अस्तित्व में से छूटने का मार्ग किस तरह ले सकें / ___यद्यपि मनुष्य और दिव्य व्यक्तिओं के संबंध में बुद्ध के निषेधात्मक विचारों का अनादर करने की उस के अनुयाईयों का कर्तव्य हो गया था तो भी दूसरी बातों में तो बुद्ध धर्म बिलकुल निषेधात्मक हो रहा है। मात्र सुख और दुःख की ही नहीं परन्तु शुभ और अशुभ की भी जिसमें
SR No.032770
Book TitleTulnatmak Dharma Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyaratna Atmaram
PublisherJaydev Brothers
Publication Year1921
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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