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________________ 14 इतने एकाग्र हो गए कि पांरपरिक तथा औपचारिक धर्म कार्यों के लिए उन्हें समय ही नहीं मिला। उनके द्वारा रचा सम्पूर्ण साहित्य तो उपलब्ध नहीं है फिर भी जितना कुछ उपलब्ध है और जितने के संबंध में इतस्तत: उल्लेख मिलता है, उससे उनकी बहुमुखी प्रतिभा, तलस्पी ज्ञान और गहन मौलिक चिन्तन का दिग्दर्शन होता है। उनकी रचनाएं संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी-मारवाड़ी चारों भाषाओं में हैं। ये रचनाएं गद्य, पद्य तथा मिश्रित तीनों शैलियों में हैं। इस महान मनीषी का रचना कार्य इनके अध्ययन कार्य के साथसाथ ही चलता रहा और ज्ञान तथा अनुभव के साथ-साथ परिपक्व होता चला गया। यशोविजय जी ने अनेक विषयों पर आधिकारिक रूप से कलम चलाई। उनकी साहित्य साधना में मौलिक कृतियां भी हैं तो पूर्व-धुरंधरों की रचनाओं पर बालावबोध व टीकाएं भी हैं। उनकी व्यापक दृष्टि जैन दर्शन की चर्चा तक ही सीमित नहीं रही, अन्य दर्शनों की चर्चा भी उन्होंने उतने ही आधिकारिक रूप से की है। उनकी रचनाओं का परिमाण लाखों श्लोक माना जाता है। मात्र न्याय विषय पर दो लाख श्लोक लिखे यह बात उनके द्वारा एक श्रावक शा. हंसराज को लिखे एक पत्र में सूचित की गई थी। यशोविजय जी ने अपने अध्ययन काल में पारम्परिक अध्ययन के साथ उस समय अन्य परम्पराओं में प्रचलित नवीन न्याय शास्त्र का जो गहन अध्ययन किया था उसके फलस्वरूप उन्होंने जैन दर्शन का तर्क और न्याय पर आधारित जितना प्रभावी विश्लेषण व प्रतिपादन किया उतना न तो उनके पूर्ववर्ती जैन विद्वानों ने किया और न ही परवर्ती कोई विद्वान कर पाया। ' उन्होंने अनेकान्त-व्यवस्था नामक ग्रन्थ की रचना की और अनेकान्तवाद को परिष्कृत कर नव्यन्याय की शैली में प्रस्तुत किया। जैन तर्क-भाषा और ज्ञानबिन्दु नामक ग्रन्थों से ज्ञान तथा प्रमाण विषयक परिभाषाओं की पुनर्स्थापना की। नयप्रदीप, नयरहस्य और नयोपदेश (नयामृततरंगिणी नामक स्वोपज्ञ टीका सहित) के द्वारा नयवाद को एक नई दिशा दी। न्याय-खण्ड-खाद्य और न्यायालोक की रचना कर अन्य दर्शनों के
SR No.032769
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1995
Total Pages286
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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