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________________ इसके बाद शमाष्टक है। समता नदी वह मीठी और पवित्र धारा है जिसमें हृदय के राग-द्वेष की सारी मलिनता बह जाती है। जिसने एक बार समता का माधुर्य चख लिया वह कभी भी राग-द्वेष के विषमय प्याले की , ओर आँख नहीं उठाता। सृष्टि के प्राणि मात्र के प्रति अपनत्व भावों का विस्तार समता का मीठा फल है। वह आत्मा की परिपक्व अवस्था है। इसी का दूसरा नाम वीतरागता है। गीता में समदृष्टि की व्याख्या इस प्रकार उपलब्ध होती है 'विद्या-विनय-संपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिनः // ' समदृष्टि पंडित विद्या विनय युक्त ब्राह्मण में, गाय में, हाथी में, कुत्ते और हरिजन में समान दृष्टिकोण रखता है। समभावी पुरुष बाह्म स्वरूप को न देखकर मात्र आत्मस्वरूप को देखता है। और आत्म स्वरूप की अपेक्षा से सृष्टि की समस्त आत्माएं समान हैं। इसके बाद इन्द्रियजयाष्टक है। आत्मा और परमात्मा के मध्य का अंतर बताते हुए आनंदघनजी म. कहते हैं 'जेणे ते जित्यो रे तेणे हूँ जीतीयो रे, पुरुष किस्युं मुझ नाम' हे प्रभु ! जिन इन्द्रयों पर आपने नियंत्रण स्थापित कर लिया था, उन इन्द्रियों ने मुझ पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया है। इन्द्रियों की गुलामी ही हमारे समस्त दुःखों की जनेता है। इन्द्रियों की गुलामी करते-करते इस आत्मा का अनंत समय बीत गया। फिर भी गुलामी करते अभी तक तप्ति नहीं हुई। एक कवि ने लिखा है 'अग्नि जो तृप्ति इन्धने नदी थी जलध पुराय मेरे लाल तो विषय सुख भोग थी जीव ए तृप्त थाय मेरे लाल' इस अष्टक में उदाहरण सहित बताया गया है कि मात्र एक इन्द्रिय की गुलामी प्राण त्याग की स्थिति का निर्माण कर देती है, तो पांचों इन्द्रियों
SR No.032769
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1995
Total Pages286
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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