SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5 गीता में श्रीकृष्ण ने भी स्थितप्रज्ञता को सर्वोत्कृष्ट स्थिति कहा है परन्तु ऐसी उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त करना सहज नहीं है। इसके लिये इष्ट-अनिष्ट सभी स्थितियों के प्रति उदासीनता, स्पृहाओं का त्याग एवं राग-द्वेष का समूल नाश करना पड़ता है। _ 'दुःखेष्वनुद्विगमना: सुखेषु विगतस्पृहः / वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते // ' चतुर्थ मोहाष्टक है। मोहभाव के कारण ही संसार का परिभ्रमण है और उसका त्याग मोक्ष है। जिसका जैसा स्वभाव है उसको उसी रूप में न समझना मोह अथवा मिथ्याबुद्धि का परिणाम है और जिसका जैसा स्वभाव है उसको उसी स्वरूप में समझना मोक्षमार्ग की उत्कृष्ट सीढी है। अष्ट कर्मों में सबसे खतरनाक मोह ही है। अगर मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त हो जाय तो ऐसा मानना चाहिये कि सेनापति पर नियंत्रण स्थापित हो चुका है। जिस सेना का सेनापति नियंत्रण में आ जाय, उस सेना के पांव उखडते समय नहीं लगता। दु:खमय संसार को सुखमय मानकर उसमें आसक्त रहने का मुख्य कारण मोहनीय कर्म का ही परिणाम है। _ 'एगोहं नत्थि मे कोई नाहमनस्स कस्सवि' मैं एकाकी हूँ। संसार के सारे संबंध नाशवान है। इस प्रकार की भावना मोह बंधन को तोड़ने के लिये तीखी तलवार है। इसके बाद ज्ञानाष्टक है। मोह का त्याग सम्यग्ज्ञान की स्थिति में ही संभव है। विद्वत्ता और सम्यग्ज्ञान में अंतर है। विद्वत्ता के द्वारा हम पंडित की उपाधि को प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु ज्ञानी नहीं बन सकते / मात्र विद्वत्ता संसार परिभ्रमण का कारण बनती है। जबकि सम्यक् ज्ञान मोक्ष प्राप्ति का साधन है। तत्त्वार्थ सूत्र का प्रारंभ ही इस सूत्र से होता है 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' सम्यग्ज्ञान आत्म-ज्ञान भी कहलाता है। आचार की अपेक्षा से भी ज्ञान महत्वपूर्ण है, क्योंकि ज्ञान के प्रकाश में ही आचारदर्शन संभव है।
SR No.032769
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1995
Total Pages286
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy