________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा के पंचास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने यह समन्वय निश्चय और व्यवहार के आधार पर किया। वे लिखते हैं- पृथ्वी, अप और वनस्पति ये तीन स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर कहे जाते हैं, किन्तु वायु और अग्नि पंच स्थावर में वर्गीकृत किये जाते हुए भी चलन क्रिया दिखाई देने से व्यवहार से त्रस कहे जाते हैं। वस्तुतः यह सब प्राचीन और परवर्ती ग्रन्थों में जो मान्यता भेद आ गया था उससे संगति बैठाने का एक प्रयत्न था। जहाँ तक जीवों के विविध वर्गीकरणों का प्रश्न है, निश्चय है कि ये सब वर्गीकरण ई. सन् की दूसरी-तीसरी शती से लेकर दसवीं शती तक की कालावधि में स्थिर हुए हैं। इस काल में जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान आदि अवधारणाओं का विकास हुआ है। भगवती जैसे प्राचीन आगमों में जहाँ इन विषयों की चर्चा है वहाँ प्रज्ञापना आदि अंगबाह्य ग्रन्थों का निर्देश हुआ है। इससे स्पष्ट है कि ये विचारणाएँ ईसा की प्रथम-द्वितीय शती के बाद ही विकसित हुईं। ऐसा लगता है कि प्रथम अंगबाह्य आगमों में उनका संकलन किया गया है और फिर माथुरी एवं वल्लभी वाचनाओं के समय उन्हें अंग आगमों में समाविष्ट कर इनकी विस्तृत विवेचना को देखने के लिए तद्-तद् ग्रन्थों का निर्देश कर दिया गया। इस प्रकार जैन साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर यह माना जाता है कि जैन तत्त्वमीमांसा का विकास कालक्रम में हुआ है। यद्यपि परम्परागत मान्यता जैनदर्शन को सर्वज्ञ प्रणीत मानने के कारण इस ऐतिहासिक विकासक्रम को अस्वीकार करती है। इस प्रकार इस आलेख में जो विविध समस्याएँ उठाई गई हैं, विद्वानों से अपेक्षा हैं कि वे इसे आगे गति देंगे।