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________________ 73 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा षट्जीवनिकाय की अवधारणा : पंचास्तिकाय के साथ-साथ षट्जीवनिकाय की चर्चा भी प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध है। ज्ञातव्य है कि पंचास्तिकाय में जीवास्तिकाय के विभाग के रूप में षट्जीवनिकाय की यह अवधारणा विकसित हुई है। षट्जीवनिकाय निम्न हैं-पृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय, तेजकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। पृथ्वी आदि केलिए 'काय' शब्द का प्रयोग प्राचीन है। दीघनिकाय में अजितकेशकम्बलिन के मत को प्रस्तुत करते हुए-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय और वायुकाय का उल्लेख हुआ है। उसी ग्रन्थ में पकुधकच्चायन के मत के सन्दर्भ में पृथ्वी, अप, तेजस, वायु, सुख, दुःख और जीव-इन सात कायों की चर्चा है। इससे यह फलित होता है कि पृथ्वी, अप आदि केलिए काय संज्ञा अन्य श्रमण परम्पराओं में प्रचलित थी / काय शब्द एक ओर शरीर का वाचक है तो दूसरी ओर समूह या स्कन्ध का भी वाचक है। यद्यपि काय कौन-कौन से और कितने हैं इस प्रश्न को लेकर उनमें परस्पर मतभेद थे। अजितकेशकम्बलिन पृथ्वी, अप, तेजस् और वायु इन चार महाभूतों को काय कहता था, तो पकुधकच्चायन इन चार के साथ सुख, दुःख और जीव इन तीन को सम्मिलित कर सात काय मानते थे। जैनों की स्थिति इनसे भिन्न थी-वे जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल-इन पाँच को काय मानते थे, किन्तु इतना निश्चित है कि उनमें पंच अस्तिकाय और षट्जीवनिकाय की अवधारणा लगभग ई. पू. छटी-पाँचवी शती में अस्तित्व में थी। क्योंकि आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में इन षट्जीवनिकायों का और ऋषिभासित के पार्श्व अध्ययन में पंच अस्तिकायों का स्पष्ट उल्लेख है। इन सभी ग्रन्थों को सभी विद्वानों ने ई. पू. पाँचवीं-चौथी शती का और पाली त्रिपिटक के प्राचीन अंशों का समकालीन माना है। हो सकता है कि ये अवधारणायें क्रमशः पार्श्व और महावीरकालीन हों / ज्ञातव्य है कि पंचास्तिकाय की अवधारणा मूलतः पार्श्व की परम्परा की रही है- जिसे लोक की व्याख्या के सन्दर्भ में भगवान महावीर ने पार्श्व की अवधारणाओं को स्वीकार किया था, जिसका उल्लेख भगवतीसूत्र में है, अतः इसी क्रम में उन्होंने पार्श्व की पंचास्तिकाय की अवधारणा को भी मान्यता दी होगी। अतः मैं पं. दलसुखभाई मालवाणियाँ के इस कथन से सहमत नहीं हूँ कि पंचास्तिकाय की परम्परा का विकास बाद में हुआ। हाँ, इतना अवश्य सत्य है कि भगवान महावीर की परम्परा में पार्श्व की परम्परा सम्मिलित हो जाने पर जो दार्शनिक अवधारणायें भगवान महावीर की परम्परा में मान्य हुईं उनमें पंचास्तिकाय की अवधारणा भी थी। अतः चाहे पंचास्तिकाय की अवधारणा महावीर की परम्परा में आचारांग और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की रचना के बाद सर्वप्रथम भगवती में मान्य हुई हो, किन्तु वह है पार्श्वकालीन /
SR No.032751
Book TitleJain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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