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________________ 60 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा लक्षण है अथवा द्रव्य जिसका परित्याग नहीं कर सकता है, वही गुण है। गुण वस्तु की सहभावी अवस्थाओं या पर्यायों का सूचक है। फिर भी गुण की ये अवस्थायें अर्थात् गुण-पर्यायें बदलती रहती है। द्रव्य के समान गुणों की पर्यायें भी होती हैं, जो गुण की भी परिवर्तनशीलता को सूचित करती हैं। जीव में चेतना की अवस्थाएँ रूपी पर्यायें बदलती है, फिर भी चेतना गुण बना रहता है। - वे विशेषताएँ या लक्षण जिनके आधार पर एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से अलग किया जा सकता है वे विशिष्ट गुण कहे जाते हैं। उदाहरण के रूप में धर्म-द्रव्य का लक्षण गति में सहायक होना है। अधर्म-द्रव्य का लक्षण स्थिति में सहायक होना है। जो सभी द्रव्यों का अवगाहन करता है, उन्हें स्थान देता है, वह आकाश कहा जाता है। इसी प्रकार परिवर्तन काल का और उपयोग जीव का लक्षण है / अतः गुण वे हैं जिनके आधार पर हम किसी द्रव्य को पहचानते हैं और उसका अन्य द्रव्य से पृथक्त्व स्थापित करते हैं। उत्तराध्ययन (28/11-12) में जीव और पुद्गल के अनेक लक्षणों का भी चित्रण हुआ है। उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, एवं उपयोग ये जीव के लक्षण बताये गये हैं और शब्द, प्रकाश, अंधकार, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि को पुद्गल का लक्षण कहा गया है। लेकिन अस्तित्व की दृष्टि से इन गुणों की पृथक्-पृथक् सताएँ नहीं है। गुणों केसन्दर्भ में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि कुछ गुण सामान्य होते हैं और वे सभी द्रव्यों में पाये जाते हैं और चेतना आदि कुछ गुण विशिष्ट होते हैं। चेतना गुण केवल जीव द्रव्य में पाया जाता हैं, अजीव द्रव्य में उसका अभाव होता है। दूसरे शब्दों में कुछ गुण सामान्य और कुछ गुण विशिष्ट होते हैं। सामान्य गुणों के आधार पर जाति या वर्ग की पहचान होती है। वे द्रव्य या वस्तुओं का एकत्व प्रतिपादित करते हैं, जब कि विशिष्ट गुण का एक द्रव्य का दूसरे से अन्तर स्थापित करते हैं। गुणों के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अनेक गुण सहभावी रूप से एक ही द्रव्य में रहते हैं। इसीलिए जैनदर्शन में वस्तु को अनन्तधर्मात्मक कहा गया है। इन विशेष गुणों की एक अन्य विशेषता यह भी है कि वे द्रव्य विशेष की विभिन्न पर्यायों में भी बने रहते हैं। जीवों की चेतना पर्याय बदलती रहती है, फिर भी परिवर्तनशील चेतना पर्यायों में चेतना गुण और जीव द्रव्य बना रहता है। कोई भी द्रव्य गुण, एवं पर्याय से रहित नहीं होता। द्रव्य, गुण और पर्याय का विभाजन मात्र वैचारिक स्तर पर किया जाता है, सत्ता के स्तर पर नहीं। पर्याय से रहित होकर न तो द्रव्य की कोई सत्ता होती है और न द्रव्य से रहित पर्याय की। अतः सत्ता के स्तर पर पर्याय और द्रव्य में अभेद है, जब कि वैचारिक स्तर पर दोनों में भेद किया जा सकता है। पर्याय के प्रकार : (क) जीव पर्याय और अजीव पर्याय :
SR No.032751
Book TitleJain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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