________________ '51 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा पर्याय के सम्बन्ध को लेकर तत्त्वार्थसूत्रकार ने जो द्रव्य की परिभाषा दी है वह अधिक उचित जान पड़ती है। तत्त्वार्थसत्कार के अनुसार जो गुण और पर्यायों से युक्त है, वही द्रव्य है। वैचारिक स्तर पर तो गुण द्रव्य से भिन्न हैं और उस दृष्टि से उनमें आश्रय-आश्रयी भाव भी देखा जाता है किन्तु अस्तित्व के स्तर पर द्रव्य और गुण एक-दूसरे से पृथक् (विविक्त) सताएँ नहीं हैं। अत: उनमें तादात्म्य भी है। इस प्रकार गुण और द्रव्य में कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है। डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य जैनदर्शन (पृ. 144) में लिखते हैं कि गुण से द्रव्य को पृथक् नहीं किया जा सकता, इसलिए वे द्रव्य से अभिन्न हैं। किन्तु प्रयोजन आदि भेद से उनका विभिन्न रूप से निरूपण किया जा सकता है, अतः वे भिन्न भी हैं। "एक ही पुद्गल परमाणु में युगपत् रूप से रूप, रस, गन्ध आदि अनेक गुण रहते हैं। अनुभूति के स्तर पर एक गुण न केवल दूसरे गुण से भिन्न है अपितु उस स्तर पर वह द्रव्य से भी भिन्न कल्पित किया जा सकता है। पुनः गुण अपनी पूर्वपर्याय को छोड़कर उत्तरपर्याय को धारण करता है और इस प्रकार वह परिवर्तित होता रहता है, किन्तु उसमें यह पर्याय परिवर्तन द्रव्य से भिन्न होकर नहीं होता। पर्यायों में होनेवाले परिवर्तनों के बीच जो एक अविच्छिन्नता का नियामक तत्त्व है, वही द्रव्य है। उदाहरण के रूप में एक पुद्गल के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के गुण बदलते रहते हैं और उस गुण परिवर्तन के परिणामस्वरूप उसकी पर्याय भी बदलती रहती है। प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय स्वाभाविकगुण-कृत और वैभाविकगुण-कृत अर्थात् पर्यायकृत उत्पाद और व्यय होते रहते हैं। यह सब उस द्रव्य की सम्पत्ति या स्वरूप है। इसलिए द्रव्य को उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यात्मक कहा जाता है। द्रव्य के साथ-साथ उसके गुणों में भी उत्पाद-व्यय होता रहता है। जीव का गुण चेतना है, उसमें पृथक् होने पर जीव जीव नहीं रहेगा, फिर भी जीव की चेतन अनुभूतियाँ स्थिर नहीं रहती हैं, वे प्रति क्षण बदलती रहती हैं, अतः गुणों में भी उत्पाद-व्यय होता रहता है। पुनः वस्तु का स्व-लक्षण कभी बदलता नहीं है अतः गुण में ध्रौव्यत्व पक्ष भी है। अतः गुण भी द्रव्य के समान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण युक्त है। गुणों के प्रकार : जैनदर्शन में सत्ता को अनन्त धर्मात्मक (अनन्त गुणात्मक) माना गया है- वस्तु के गुणधर्म दो प्रकार के हैं- भावात्मक गुणधर्म और अभावात्मक गुणधर्म / भावात्मक (विधायक) गुणों या धर्मों की अपेक्षा भी अभावात्मक गुणधर्मों की संख्या तो अनन्त होती है। एक वस्तु को वह वस्तु होने के लिए उसमें अन्य वस्तु और उसके गुणधर्मों का अभाव होना आवश्यक है। एक मनुष्य को 'वह' होने के लिए उसका चराचर विश्व की अनन्त वस्तुओं एवं व्यक्तियों से भिन्न होना अर्थात् उसमें उनका अभाव होना आवश्यक है। स्थूल उदाहरण के लिए 'सागरमल' को सागरमल 1. उत्तराध्ययनसूत्र 28-13 AAHI