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________________ 40 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा तथ्य को सिद्ध कर चुके हैं कि एक परमाणु का विस्फोट भी कितनी अधिक शक्ति का सृजन कर सकता है। वैसे भी भौतिक पिण्ड या पुद्गल की अवधारणा ऐसी है, जिस में वैज्ञानिकों एवं जैन विचारकों में कोई अधिक मतभेद नहीं देखा जाता। परमाणुओं के द्वारा स्कन्ध (Molecule) की रचना का जैन सिद्धान्त कितना वैज्ञानिक है, इसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। विज्ञान जिसे परमाणु कहता था, वह अब टूट चुका है। वास्तविकता तो यह है कि जिसका विभाजन नहीं हो सके वही भौतिक परमाणु है। इस प्रकार आज हम देखते हैं कि विज्ञान का तथाकथित परमाणु खण्डित हो चुका है, जब कि जैनदर्शन का परमाणु अभी वैज्ञानिकों की पकड़ में आ ही नहीं पाया है। वस्तुतः जैनदर्शन में जिसे परमाणु कहा जाता है, उसे आधुनिक वैज्ञानिकों ने क्वार्क नाम दिया है। आज भी वे उसकी खोज में लगे हुए हैं। समकालीन भौतिकीविदों की क्वार्क की परिभाषा यह है कि जो विश्व का सरलतम और अन्तिम घटक है, वही क्वार्क है। आज भी क्वार्क को पूर्णतः व्याख्यायित करने में वैज्ञानिक सफल नहीं हो पाये हैं। आधुनिक विज्ञान प्राचीन अवधारणाओं को सम्पुष्ट करने में किस प्रकार सहायक हुआ है, उसका एक उदाहरण यह है कि जैन तत्त्वमीमांसा में एक ओर यह अवधारणा रही है कि एक पुद्गल परमाणु जितनी जगह घेरता है-वह एक आकाश प्रदेश कहलाता है। दूसरे शब्दों में मान्यता यह है कि एक आकाश प्रदेश में एक परमाणु ही रह सकता है, किन्तु दूसरी ओर आगमों में यह भी उल्लेख है कि एक आकाश प्रदेश में अनन्त पुद्गल परमाणु समा सकते हैं / इस विरोधाभास का सीधा समाधान हमारे पास नहीं था। लेकिन विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व में कुछ ऐसे ठोस द्रव्य हैं जिनका एक वर्ग इंच का वजन लगभग 8 सौ टन होता है। इससे यह भी फलित होता है किं जिन्हें हम ठोस समझते हैं, वे वस्तुतः कितने पोले हैं। अतः सूक्ष्म अवगाहनशक्ति के कारण यह सम्भव है कि एक ही आकाश प्रदेश में अनन्त परमाणु भी समाहित हो जायें। काल द्रव्य: ___काल द्रव्य को अनास्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत माना गया है। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं-आगमिक युग तक जैनपरम्परा में काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सन्दर्भ में पर्याप्त मतभेद था / आवश्यकचूर्णि (भाग-१, पृ. 340-341) में काल के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न तीन मतों का उल्लेख हुआ है- 1. कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर पर्याय रूप मानते हैं। 2. कुछ विचारक उसे गुण मानते हैं / 3. कुछ विचारक उसे स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सातवीं शती तक काल के सम्बन्ध में उक्त तीनों विचारधाराएँ प्रचलित रहीं और 1. तत्त्वार्थसूत्र, 8/11 2. जैनदर्शन और आधुनिक विज्ञान के सम्बन्धों की विस्तृत विवेचना के लिए देखें- (अ) श्रमण, अक्टुबर-दिसम्बर, 1992, पृ. 1-12 (ब) Cosmology : Old and New by G. R. Jain
SR No.032751
Book TitleJain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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