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________________ 34 जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा मद्यपान कर ले कि नशे में उसे अपने किए हुए मद्यपान की स्मृति भी न रहे, लेकिन इससे क्या वह उसके नशे से बच सकता है? जो किया है, उसका भोग अनिवार्य है, चाहे उसकी स्मृति हो या न हो। जैन चिन्तकों ने इसलिए कर्म सिद्धान्त की स्वीकृति के साथ-साथ आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। जैन विचारणा यह स्वीकार करती है कि प्राणियों में क्षमता एवं अवसरों की सुविधा आदि का जो जन्मना नैसर्गिक वैषम्य है, उसका कारण प्राणी के अपने ही पूर्वजन्मों के कृत्य हैं। संक्षेप में वंशानुगत एवं नैसर्गिक वैषम्य पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कृत्यों का फल है। यही नहीं, वरन् अनुकूल एवं प्रतिकूल परिवेश की उपलब्धि भी शुभाशुभ कृत्यों का फल है। स्थानांगसूत्र में भूत, वर्तमान और भावी जन्मों में शुभाशुभ कर्मों के फल-सम्बन्ध की दृष्टि से आठ विकल्प माने गये हैं- 1. वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में ही फल देवें / 2. वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म भावि जन्मों में फल देवें / 3. भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में ही फल देवें / 4. भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें / 5. वर्तमान जन्म के शुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें / 6. वर्तमान जन्म के शुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें / 7. भूतकालीन जन्मों के शुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें / 8. भूतकालीन जन्मों केशुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें। ___ इस प्रकार जैनदर्शन में वर्तमान जीवन का सम्बन्ध भूतकालीन एवं भावी जन्मों से माना गया है। जैनदर्शन के अनुसार चार प्रकार की योनिया हैं- 1. देव (स्वर्गीय जीवन), 2. मनुष्य, 3. तिर्यंच (वानस्पतिक एवं पशु जीवन) और 4. नारक (नारकीय जीवन) प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार इन योनियों में जन्म लेता है। यदि वह शुभ कर्म करता है तो देव और मनुष्य के रूप में जन्म लेता है और अशुभ कर्म करता है तो पशु गति या नारकीय गति प्राप्त करता है। मनुष्य मर कर पशु भी हो सकता है और देव भी। प्राणी जीवन में क्या होगा यह उसके वर्तमान जीवन केआचरण पर निर्भर करता है। इस प्रकार जैनदर्शन कर्म सिद्धान्त के आधार पर आत्म-द्रव्य को परिणामी नित्य मानता है। धर्म द्रव्य : धर्म द्रव्य की इस चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि यहाँ 'धर्म' शब्द का अर्थ वह नहीं है जिसे सामान्यतया ग्रहण किया जाता है। यहाँ 'धर्म' शब्द न तो स्वभाव का वाचक है, न कर्तव्य का और न साधना या उपासना के विशेष प्रकार का, अपितु इसे 1. जैन साइकॉलॉजी, पृ. 175 2. स्थानांगसूत्र, 8/2
SR No.032751
Book TitleJain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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