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________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा मुनि जी के इस कथन को अधिक स्पष्ट रूप में यों कहा जा सकता है कि जीव केअपौद्गलिक स्वरूप की उपलब्धि मोक्ष है। जैनदर्शन का लक्ष्य इसी अपौद्गलिक स्वरूप की उपलब्धि है। जीव की अपौद्गलिकता आदर्श है, एक जागतिक तथ्य नहीं है। आत्मा और शरीर में सम्बन्ध : भगवान महावीर केसम्मुख यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि "भगवान् ! जीव वही है, जो शरीर है या जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है?" भगवान महावीर ने उत्तर दिया-“हे गौतम ! जीव शरीर भी है और शरीर से भिन्न भी है। इस प्रकार महावीर ने आत्मा और देह के मध्य भिन्नत्व और एकत्व दोनों को स्वीकार किया। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आत्मा और शरीर के एकत्व और भिन्नत्व को लेकर यही विचार प्रकट किये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा और देह एक ही हैं लेकिन निश्चिय दृष्टि से आत्मा और देह कदापि एक नहीं हो सकते। वस्तुतः आत्मा और शरीर में एकत्व माने बिना स्तुति, वंदन, सेवा आदि अनेक नैतिक आचरण की क्रियाएँ सम्भव नहीं / दूसरी ओर आत्मा और देह में भिन्नता माने बिना आसक्तिनाश और भेदविज्ञान की संभावना नहीं हो सकती / नैतिक और धार्मिक साधना की दृष्टि से आत्मा का शरीर से एकत्व और अनेकत्व दोनों अपेक्षित हैं। भगवान महावीर ने एकान्तिक वादों को छोड़कर अनेकान्त दृष्टि को स्वीकार किया और दोनों वादों का समन्वय किया। उन्होंने कहा कि आत्मा और शरीर कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न हैं। आत्मा परिणामी है : ___ जैनदर्शन आत्मा को परिणामी मानता है, जब कि सांख्य एवं शंकर वेदान्त आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानते हैं। बुद्धके समकालीन विचारक पूर्णकाश्यप भी आत्मा को अपरिणामी मानते थे। आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानने का तात्पर्य यह है कि आत्मा में कोई विकार, परिवर्तन, स्थित्यन्तर नहीं होता। जैन आचार ग्रन्थों में यह वचन बहुतायत से उपलब्ध होते है कि आत्मा कर्ता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि आत्मा ही अपने सुखों और दुःखों का कर्ता और भोक्ता है। यह भी कहा गया है कि सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है। ___ यही नहीं, सूत्रकृतांग में आत्मा को अकर्ता माननेवाले लोगों की आलोचना करते हुए स्पष्ट रूप में कहा गया है-"कुछ दूसरे (लोग) तो धृष्टतापूर्वक कहते हैं कि करना, कराना आदि क्रिया आत्मा नहीं करता, वह तो अकर्ता है। इन वादियों को सत्य ज्ञान का पता नहीं और न उन्हें धर्म का ही भान है। 1. भगवती सूत्र 13/1/495 2. समयसार, 27 3. उत्तराध्ययन सूत्र, 20/37 4. वही, 20/48 5. सूत्रकृतांग सूत्र, 1/1/13-21
SR No.032751
Book TitleJain Darshan Me Dravya Gun Paryaya ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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