________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा वस्तुतः सत्ता को निर्विकार और अव्यय मानने में सबसे बड़ी बाधा यह है कि उसके अनुसार जगत् को मिथ्या या असत् ही मानना होता है, क्योंकि हमारी अनुभूति का जगत् तो परिवर्तनशील है, इसमें कुछ भी ऐसा प्रतीत नहीं होता जो परिवर्तन से रहित हो / न केवल व्यक्ति और समाज, अपितु भौतिक पदार्थ भी प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। सत्ता को निर्विकार और अव्यय मानने का अर्थ है, जगत् की अनुभूतिगत विविधता को नकारना और कोई भी विचारक अनुभवात्मक परिवर्तनशीलता को नकार नहीं सकता। चाहे आचार्य शंकर कितने ही जोर से इस बात को रखें कि निर्विकार ब्रह्म ही सत्य है और परिवर्तनशील जगत् मिथ्या है,किन्तु आनुभविक स्तर पर कोई भी विचारक इसे स्वीकार नहीं कर सकेगा। अनुभूति केस्तर पर जो परिवर्तनशीलता की अनुभूति है, उसे कभी भी नकारा नहीं जा सकता। यदि सत्ता त्रिकाल में अविकारी और अपरिवर्तनशील हो, तो फिर वैयक्तिक जीवों या आत्माओं के बन्धन और मुक्ति की व्याख्या भी अर्थहीन हो जायेगी। धर्म और नैतिकता, दोनों का ही उन दर्शनों में कोई स्थान नहीं है, जो सत्ता को अपरिणामी मानते हैं। जैसे जीवन में बाल्यावस्था, युवावस्था और प्रौढ़ावस्था आती है, उसी प्रकार सत्ता में भी परिवर्तन घटित होते हैं। आज का हमारे अनुभव का विश्व वह नहीं है, जो हजार वर्ष पूर्व था, उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन घटित होते हैं। न केवल जगत् में, अपितु हमारे वैयक्तिक जीवन में भी परिवर्तन घटित होते रहते हैं, अतः अस्तित्व या सत्ता के सम्बन्ध में अपरिवर्तनशीलता की अवधारणा समीचीन नहीं है। इसके विपरीत यदि सत् को क्षणिक या परिवर्तनशील माना जाता है तो भी कर्मफल या नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या सम्भव नहीं होती। यदि प्रत्येक क्षण स्वतन्त्र है, तो फिर हम नैतिक उत्तरदायित्व की व्याख्या नहीं कर सकते। यदि व्यक्ति अथवा वस्तु अपने पूर्व क्षण की अपेक्षा उत्तर क्षण में पूर्णतः बदल जाती है, तो फिर हम किसी को, पूर्व में किए गये चोरी आदि कार्यों के लिए कैसे उत्तरदायी बना पायेंगे? ___ सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन दार्शनिकों का इस धारणा के विपरीत यह कहना है कि उत्पत्ति के बिना नाश और नाश के बिना उत्पत्ति सम्भव नहीं है, दूसरे शब्दों में पूर्व-पर्याय के नाश के बिना उत्तर-पर्याय की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, किन्तु उत्पत्ति और नाश दोनों का आश्रय कोई वस्तुत्व होना चाहिये। एकान्त नित्य वस्तुत्व या द्रव्य में परिवर्तन सम्भव नहीं है और यदि पदार्थों को एकान्त क्षणिक माना जाये, तो परिवर्तित कौन होता है, यह नहीं बताया जा सकता / आचार्य समन्तभद्र आप्तमीमांसा में इस दृष्टिकोण की समालोचना करते हुए कहते हैं कि “एकान्त क्षणिकवाद में प्रेत्यभाव अर्थात् पुनर्जन्म असम्भव होगा और प्रेत्यभाव केअभाव में पुण्य-पाप के प्रतिफल और बन्धन-मुक्ति की अवधारणायें भी सम्भव नहीं होंगी। पुनः एकान्त क्षणिकवाद में प्रत्यभिज्ञा भी सम्भव नहीं और प्रत्यभिज्ञा के अभाव में कार्यारम्भ ही नहीं होगा,