________________ जैनदर्शन में द्रव्य, गुण और पर्याय की अवधारणा जैनदर्शन में सत्ता का स्वरूप : जैन आगम साहित्य एवं उसकी व्याख्याओं में वर्णित विषयवस्तु को मुख्य रूप से जिन चार विभागों में वर्गीकृत किया गया है, वे अनुयोग कहे जाते हैं। अनुयोग चार हैं- 1. द्रव्यानुयोग, 2. गणितानुयोग, 3. चरणकरणानुयोग और 4. धर्मकथानुयोग / इन चार अनुयोगों में से जिस अनुयोग केअन्तर्गत विश्व के मूलभूत घटकों के स्वरूप के सम्बन्ध में विवेचन किया जाता है, उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं / खगोल-भूगोल सबन्धी विवेचन गणितानुयोग के अन्तर्गत आता है, जब कि आचार सम्बन्धी विधि-निषेधों का विवेचन चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत होता है और धर्म एवं नैतिकता में आस्था को दृढ़ करने हेतु सदाचारी, सत्पुरुषों के जो आख्यानक (कथानक) प्रस्तुत किये जाते हैं, वे धर्मकथानुयोग केअन्तर्गत आते हैं। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि इन चार अनुयोगों में द्रव्यानुयोग का सम्बन्ध तात्त्विक या दार्शनिक चिन्तन से है। जहाँ तक हमारे दार्शनिक चिन्तन का प्रश्न है, आज हम उसे तीन भागों में विभाजित करते हैं- 1. तत्त्व-मीमांसा, 2. ज्ञान-मीमांसा और 3. आचार-मीमांसा / इन तीनों में से तत्त्व-मीमांसा द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत आती है। जहाँ तक तत्त्व-मीमांसा का सम्बन्ध है, उसके प्रमुख कार्य जगत् के मूलभूत घटकों, उपादानों या पदार्थों और उनके कार्यों की विवेचना करना है। तत्त्व-मीमांसा का आरम्भ तभी हुआ होगा, जब मानव में जगत् के स्वरूप और उसके मूलभूत उपादान या घटकों को जानने की जिज्ञासा प्रस्फुटित हुई होगी तथा उसने अपने और अपने परिवेश के सन्दर्भ में चिन्तन किया होगा। इसी चिन्तन के द्वारा तत्त्वमीमांसा का प्रादुर्भाव हुआ होगा। "मैं कौन हूँ"?, "कहाँ से आया हूँ"?, "यह जगत क्या है"?, "यह किन नियमों से नियन्त्रित एवं संचालित होता है" इन्हीं प्रश्नों के समाधान हेतु विभिन्न दर्शनों और उनकी तत्त्व-विषयक गवेषणाओं का जन्म हुआ। जैन-परम्परा में भी उसके प्रथम एवं प्राचीनतम आगम ग्रन्थ आचाराङ्गा