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________________ (60 ) अाना पड़ा है और अब अपने पुण्यकर्मों का भोग करने के लिये श्राप पुण्यः | लोक में चलें / " राजाने कहा-"यमदूत ! तुम्हारे निर्देश के अनुसार तो मुझे चलना ही है किन्तु पहले यह तो बताओ कि नरक में पड़े हुये ये दीन जीव जिन भिन्न-भिन्न यातनाओं का भोग कर रहे हैं वे किस प्रकार के कुकर्मो के फल हैं ?" यमदूत ने इस प्रश्न के उत्तर में भिन्न-भिन्न दुष्कर्मों के भिन्नभिन्न फलों का वर्णन इस अध्याय के अन्त तक प्रस्तुत किया है / जिज्ञासुजनों को मूलग्रन्थ से ही इसका अध्ययन करना चाहिये / इस अध्याय के निम्नाङ्कित श्लोक संग्राह्य हैं पुण्यापुण्ये हि पुरुषः पर्यायेण समश्नुते / भुञ्जतश्च क्षयं याति पापं पुण्यमथापि वा // 16 // न तु भोगादृते पुण्यं किञ्चिद्वा कर्म मानवम् / पापकं वा पुनात्याशु क्षयो भोगात्प्रजायते // 17 // पुण्य और पाप को मनुष्य क्रम से भोगता है / भोग से पाप तथा पुण्य का क्षय होता है / / 16 / / मनुष्य का कोई भी कर्म, पाप अथवा पुण्य विना भोग के प्रक्षीण नहीं होता / भोग से शीघ्र ही उसका क्षय हो जाता है // 17 // पन्द्रहवां अध्याय इस अध्याय में पहले यह वर्णन किया गया है कि नरक से निकलने के बाद जीव किस पाप से किस योनि में जन्म प्राप्त करता है और बाद में उन लक्षणों को बताया गया है जिनसे ज्ञात किया जा सकता है कि कौन व्यक्ति नरक से लौटा है और कौन व्यक्ति स्वर्ग से लौटा है / इसके पश्चात् यह बताया गया है कि यह सब संवाद हो जाने के बाद जब राजा यमदूत के कथनानुसार पुण्य लोक में जाने के लिये वहाँ से प्रस्थान करने लगे तब उस नरक के प्राणी विकल हो कर कहने लगे-"महाराज ! कृपा कर थोड़ा और ठहरिये / श्राप के शरीर को छूकर बहने वाली हवा हमें सुख दे रही है तथा हमारे सन्ताप और वेदना का हरण कर रही है / " राजा ने पूछा-"यमदूत ! मैंने ऐसा कौन सा महान् पुण्य किया है जिसके कारण मेरे सन्निधानमात्र से इन प्राणियों के लिये अानन्द की वर्षा हो रही है ?" यमदूत ने बताया, "राजन् ! आपका शरीर देवताओं, पितरों, अतिथियों और भृत्यजनों से बचे हुये अन्न के सेवन से पुष्ट हुआ है तथा आपका मन भी उन्हीं सब की सेवा में लगा रहा है। इसीलिये आपके शरीर का स्पर्श करके बहने वाली वायु नारकीय जीवों को सुख प्रदान करती है और उसके लगने से उन्हें नरक की यातना उतनी कष्टदायक नहीं प्रतीत होती / " यह सुन कर राजा ने कहा
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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