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________________ ( 34 ) के रक्षणार्थ वह भिन्न-भिन्न प्रकार के भले बुरे उपाय करता है / ममता एक दुर्जेय दीर्घ श्रावरण है / यह जिस जड़ या सजीव वस्तु पर स्थापित हो जाती है, उसके सारे दोष, सारे दुर्गुण, सारी बुराइयाँ छिपा देती है और उसमें अनेक गुण, अनेक अच्छाइयाँ आरोपित कर उसमें मनुष्य के मन को इतनी दृढ़ता से बांध देती है कि उस बन्धन को तोड़ना सहस्रों जन्मों की एक जटिल समस्या बन जाती है / ममता एक महान् वृक्ष है / 'मैं' उसका अंकुर है / 'मेरा' उसका विशाल स्कन्ध-तना है / महल और भूमि उसकी बड़ी शाखायें हैं / पुत्र, कलत्र आदि उसके पल्लव हैं / धन, वाहन, अन्न, वस्त्र प्रादि उसके बड़े बड़े पत्ते हैं / पुण्य और पाप उसके फूल हैं / सुख और दुःख उसके फल हैं / अनेक प्रकार के मनोरथ उस पर मंडराने वाले भ्रमर हैं / मानव का चित्त उसके उगने की भूमि है / संसार-यात्रा में थक कर मनुष्य उसकी छाया में बैठते हैं और भ्रमवश विश्राम-सुख का अनुभव करते हैं / यही ममत्व शुम्भ अर्थात अहंकार का अनुज है जो विषयाभिलाष-रूप रक्तबीज का पतन सुन स्वयं देवी के साथ संग्राम में उतरता है / पर देवी-अध्यात्म में दृढ़ता से लगी बुद्धि इस नीच निशुम्भ का बध कर डालती है। निशुम्भ का वध हो जाने पर शुम्भ को बड़ा क्रोधावेश हो जाता है और वह अपनी सारी शक्ति तथा समस्त बल के साथ रणस्थली में उतर पड़ता है। देवी के साथ उसका भीषणतम युद्ध होता है / अनेक आकार धारण कर वह देवी पर बहुविध प्रहार करता है / अनेक विषयों का पालम्बन कर अहंकार आत्मोन्मुखी बुद्धि को विचलित करने का प्रयास करता है। पर देवी के समक्ष उसकी एक भी नहीं चलती / चले भी कैसे ? क्योंकि दोनों की शक्ति और साधन में बड़ा अन्तर है / देवी का वाहन अर्थात बुद्धि का आलम्बन सिंह मृगराज-पशुपति अर्थात् परमात्मा है और शुम्भ का वाहन अर्थात अहंकार का पालम्बन भौतिक रथभौतिक शरीर है / देवी-बुद्धि के शस्त्रास्त्र सदगुण एवं सद्विचार हैं और शुम्भअहंकार के शस्त्रास्त्र दुर्गुण एवं दुर्विचार हैं। इस प्रकार देवी अत्यन्त समर्थ और शुम्भ उनकी अपेक्षा अत्यन्त असमर्थ है / फलतः शुम्भ का वध हो जाता है। देवी विजयश्री से उल्लसित हो उठती हैं / देवराज्य निष्कण्टक हो जाता है। इन्द्र अपने राज्य पर पुनः प्रतिष्ठित हो जाते हैं और उनका साहाय्य एवं संरक्षण पा मानव अपने महान् मंगलमय लक्ष्य की साधना में निर्भय भाव से अग्रसर होता है। सूर्यतत्त्वसूर्य भारतवर्ष के परम श्राराध्य देवता हैं / सूर्योपासना, सूर्यव्रत श्रादि का प्रचलन यहाँ बहुत पुरातन काल से है / हिन्दू समाज की सभी श्रेणी के लोग
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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