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________________ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनो सज्झायो. साधुतणा गुण बहु विध अ । किणपरे पार लहा॥ जाव धरी निज बुझि सरीखा । श्रीब्रह्म सदा गुण गा॥हो० ॥ ७ ॥ ॥इति श्री चरणविधिय सज्ज्ञायम् ॥३१॥ श्रीप्रमादस्थानक सज्काय. ३२ (श्रीआचारिज विजयदेवसूरि तेहना प्रणमुंपाय-ए देशी) काल अनादि लगी मुख दायक ।राग द्वेषदोय बंमो ॥ तेहतणी पर संनल साची । वास मुगति पुर मंमो ॥ १ ॥ संजलजो विष सरिस विषय सुख। तेह थको रहो रे ॥ मोहनींद मूकीने जागो। ज्ञान नदय लहि सूरें ( ए आंकणी ) कर्म बीज रागादिक कहिये । मोहथकी कर्म हो ॥ कर्म मूलगणि जनम मरणतुं । पुरक मूल ते जो ॥ संजल ॥॥ दवनी आग अधिक इंधण लहि। वायु संजोगे दीपे॥इंद्रिय अगनि सबल थाहारे। किणहीपर नहु ठीपे॥संनल ॥३॥ संग बिलामीनो सुख कारण । मूसाने नवि हो ॥ ब्रह्मचारीने एम स्त्री संगति । व्रत सुख हेत म जो॥संनल ॥४॥जिम विष फल रुपें रस रुमा ।
SR No.032735
Book TitleSazzay Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherGokaldas Mangadas Shah
Publication Year1922
Total Pages264
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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