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________________ नमोत्थुणं लोगनाहाणं नाथ वे जो हमारी अनाथता को टाले। नाथ वे जो हमें स्वयं के नाथ बनावे। नाथ वे जो हमें जगत् के नाथ बनावे। लोगको समझकर उसकी उत्तमता का स्वीकार करते हुए जब कोई कठिनाई महसूस होती है तब उसे सरल करने के लिए उसके स्वामी की सहायता लेनी होती है। पहले तो लोक को समझना आसान नहीं हैं। संसार एक अनबूझी पहेली सा है। महापुरुषों के अनुग्रह से समझ भी लेवे तो उत्तमता की पहचान दुर्लभ है। उत्तम किसे कहा जाता है इसका स्वाध्याय हम कल कर चुके है। फिर भी पदार्थों के साथ जीनेवाले हम स्थान, स्थिति और समय के अनुसार उसका मुल्यांकन करते है। मुंबई में सस्ता है, नाशिक में महंगा है, नाशिक में सस्ता हैं, पुणा में महंगा है इस तरह पदार्थों के मूल्यों को आंकनेवाले हम परम पुण्योदय से ही लोक की उत्तमता को समझ सकते हैं। लोग की उत्तमता का स्वीकार करने के लिए स्वयं को भी उत्तम होना होता है। जो लोग में उत्तम है वही लोक का नाथ है। आचारांग सूत्र में लोकोत्तम और लोगनाहाणं के साधना में प्रवेश करने से पहले एक बडा इंटरव्यूव लिया गया है। प्रवेश के पूर्व पूछा जाता हैं कि जगत् के जीवों के साथ जीते हुए तू क्या करके आया है? उनके साथ तेरे कैसे संबंध रहे? दो ही तो उत्तर हो सकते हैं न इसके? प्रेम करके या झगडा करके। जगत् के जीवों के साथ हमारे संबंध दो तरह के हो सकते है। प्रेममय और संघर्षमय। हम परमात्मा को पहले तो प्रेम के संबंध की ही बात करेंगे ना तो सोचिए हमने ऐसा ही किया। कहा, प्रभु! सर्वप्रथम तो मैंने प्रेम किया। माता-पिता, पति-पत्नी, बच्चे सबसे प्रेम किया। सबसे तो प्रेम किया तूने परंतु स्वयं से प्रेम किया या नहीं? बेचारे हम क्या उत्तर देवे प्रभु को ? स्वयं से भी कभी कोई प्रेम किया जाता है? खाकर, खिलाकर, खेलकर, बोलकर अन्यों से प्रेम किया जाता है। स्वयं से कैसे प्रेम करे? क्या होता है स्वयं, जिससे प्रेम किया जाए ? लोक की बात करते करते हम स्व को समझने का प्रयास करने लगे। अनुभव हुआ कि मेरा स्व ही इस लोक में खो गया है। कहाँ खोजु? कैसे खोजु? इतने में गणधर भगवंत ने कहा, खोज मत खोजा लोगनाहाणं के स्मरण में। लोक के नाथ स्वयं तूझे स्व की पहचान कराएंगे। वत्स ! अप्पा अप्पम्मि रओ। आत्मा ने आत्मा में ही रमण करना है। यदि हम ही हमारे नहीं हो पाए तो ओर कोई हमारा कैसे हो सकता है ? जो स्वयं के साथ प्रेम न कर सके वह किसी अन्य के साथ प्रेम कैसे कर सकता है? जो स्वयं के साथ सुखी नहीं हो पाया वह किसी अन्य से क्या सुखी हो सकता है? , लोगनाहाणं पूछते हैं, तूने अन्य को प्रेम अधिक दिया या अन्य से अधिक लिया? इस उत्तर को ढूंढने के लिए कौनसे केलक्युलेटर की सहायता लेगे? पाई पैसे का हिसाब रखते हो ना? आठ की जगह दस रुपए रिक्षावाला मांग तो ले सारा गाँव इकट्ठा कर लेते हो। परमात्मा कहते हैं, जगत् के पदार्थों के बीच जीकर दिन-रात 96
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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