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________________ कलिकाल की दुहाई देकर इसका काल जाल काल में हम घबराकर बैठे नहीं रहेंगे। स्वभाव को बदल नहीं सकते ऐसे बहाने से दबे नहीं रहेंगे। नियति आदि को आधार बनाकर मन को समझाएंगे भी नहीं। हे लोकोत्तम पुरुष हम मात्र शुद्ध उपादान बनकर तेरे चरणों में नमोत्थुणं मंत्र के साथ मस्तक झुका देंगे। तेरी लोकत्तमता हममें भावलब्धि प्रगट कर हमारे मोक्ष का कारण बन जाऐगी ऐसा मुझे सबल विश्वास है। परम गणधर भगवंत सुधर्मा स्वामी की प्रबल भाव धारा में भीगे हुए जम्बु स्वामी के जीवन में एकसाथ काललब्धि और भावलब्धि के आंदोलन एकसाथ स्पष्ट हुए थे। काल के तरतम योग में वैरागी जम्बु कुमार एकसाथ आठ कन्याओं के साथ विवाह के बंधन में बंधे अवश्य थे, परंतु लोकोत्तम की प्रबल भावलब्धि से उत्पन्न आंदोलन से एक ही रात में 528 जीव वासितबोध के कारण बन गए। यहाँ यदि शाब्दिकबोध ही होता तो एक भी पात्र एक ही रात में परिवर्तित नहीं हो सकता। कोई त्रैकालिक लब्धिपुरुष हो, ज्ञानीपुरुष हो तो ज्ञान के बल से एकसाथ अनेकों को बोधान्वित कर सकते है, परंतु कोई नवविवाहीत पुरुष विवाह की प्रथम रात में नववधु सहित 500 जीवों को बोधान्वित कर सके ऐसा इतिहास इस महापुरुष ने बनाया। इन सबके पीछे लोगुत्तमाणं का अनुग्रह, तरतमयोग और तरतम वासना स्वरुप वासितबोध कारण रुप थे। लोगुत्तमाणं पद की एक महासाधना है, जो निरंतर ६ महिने में सिद्ध होती है। इस साधना में पूर्व दिशा की ओर मुँह रखकर चत्तारि लोगुत्तमा पद का तीन बार पारायण करना है। उसकेबाद दक्षिणावर्त प्रदक्षिणाकर वापस पूर्व दिशा में आकर चौथीबार चत्तारिलोगुत्तमा बोलना हैं। अब दक्षिणावर्त मुडकर दक्षिण दिशा की ओर अरिहंता लोगुत्तमा कहकर पश्चिम में सिद्धा लोगुत्तमा बोलना। इसीतरह उत्तर दिशा में साहू लोगुत्तमा बोलकर पुन: पूर्व दिशा में आकर केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो बोलना। लोकोत्तम के चार पद में प्रथम तीन पद तत्त्व स्वरुप हैं और चौथा पद सत्त्व स्वरुप है। तीन पद में अरिहंत, सिद्ध और साधु की लोकोत्तमता है और चौथे पद में यह लोकत्तमता धर्म स्वरुप में परिणमीत होकर स्वात्मबोध का परिणमन बन जाती है। ब्रह्मांड में से पवित्रता का अवतरण होता है और साधक के सहस्त्रार में दिव्य वर्षा स्वरुप उत्तरण होता है। निर्विकल्प समाधिबोध की यह महादशा अत्यंत अद्भुत होती है। अनुभूतिगम्य होने से उसका शाब्दिक विवरण अकथनीय है। इस दशा में से बाहर आते ही साधक की चेतना में सफल सिद्धि स्वरुप परम आनंद प्रगट होता है। मुखपर तेज और वाणी में ओज प्रगट होता है। आज इस पद का उपसंहार हमें यहीं कहता हैं कि संपूर्ण वैश्विक चेतना का कोस्मिक पॉवरपर स्वामित्त्व करने का सामर्थ्य और अधिकार जिन्हें प्राप्त हैं वे लोगुत्तमाणं हैं। लोगुत्तमाणं कोस्मिक पॉवर की व्यवस्था देते हैं। लोगुत्तमाणं फिजिकल पॉवर में स्वास्थ्य की सहायता देते है। लोगुत्तमाणं मेंटल पॉवर में प्रसन्नता से भर देते हैं। लोगुत्तमाणं स्पिरीच्युअल पॉवर में से अध्यात्मिकता का पथ प्रशस्त कर देते है। अंत में गणधर भगवंत हमें मंगलमय संदेश देते हैं वत्स! लोकोत्तम पुरुष वे कहलाते हैं जो हमारी उपेक्षा
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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