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________________ नमोत्युणं एक दिव्य साधना स्वकथन देह - विदेह - महाविदेह (अधिनिष्क्रमण) यात्रा का प्रारंभ प्रयास से होता हैं और पूर्णाहूति प्रसाद से होती हैं। कहते हैं बीता हुआ कल वापस लौटकर नहीं आता हैं। स्मृति में संग्रहित अतीत कई बार जीवन में भेंट या सौगात बनकर सुरक्षित रहता हैं। समय आने पर वह अपना काम कर लेता हैं। ऐसी ही एक याददास्त जो मेरे जीवन में अद्भुत भेंट देकर आबाद हो गई। याद आती हैं वह मंगल प्रभात जिस समय मांगलिक कार्यक्रम के सूर बह रहे थे। मांगलिक कार्यक्रम की ध्वनि बज रही थी। वेश परिवर्तन की घडियां गिनी जा रही थी। वृत्ति परिवर्तन अपना मोड बदल रही थी। संसार से संयम के प्रस्थान का आनंद छा रहा था। प्रस्थान से पूर्व गुरुचरण में वंदन करने पहुंची थी। गुरु ने कहा, पहले माता-पिता को प्रणाम करो। प्रणाम करते ही दीक्षा की तैयारी प्रारंभ हो गई। घडी में सात के डंके बज रहे थे। केशरवाडी श्री संघ के प्रांगण में अभिनिष्क्रमण के श्वेत अश्वधारी रथ खडे थे। जीवन के परार्थमूर्ति, शासनप्रेमी, प्रज्ञापुरुष जो संसार में इस देह के पिता के रूप में पहचाने जाते थे। उन चीमनभाई धनजीभाई दोमडियाने हाथ पकडकर रथ में आरोहण कराया और कहा, देह संबंध से मैं पिता हूँ और विदेह संबंध से मैं मित्र हूं। आज अंतिम बार रथ में अभिनिष्क्रमण करो फिर विहार करना हैं। अभिनिष्क्रमण देह से होता हैं। दीक्षा के बाद तुम विहार करोगे। और विहार को विदेह के साथ जोडकर, देह में विदेह की अनुभूति करना। जीवन में कभी थकना मत, हताश मत होना, हारना मत। जाओ ! प्रस्थान करो। नमो जिणाणं जिअभयाणं सदा तुम्हारे साथ रहे ऐसे मेरे मंगल आशीर्वाद हैं। माता की भिगी भिगी आंखों में आंखे डालकर कहा, कह दो एकबार 'जाए सद्धाए णिक्खंत्तोतामेव अणुपालिज्जा' माता शांताबेन का कांपता हुआ हाथ मेरे मस्तक पर रखवाया। उसी आशीर्वाद से आजतक मेरा श्रद्धा का दीप अखंड अबूझ जलता रहा।उसी ज्योती में नमोत्थुणं प्रगट हुआ उसी ज्योती में परमात्मा के दर्शन हुए। आज मैं ने देह से विदेह के आशीर्वाद दिए, परंतु विदेह से महाविदेह की साधना होती हैं, पुरुषार्थ होता हैं, पराक्रम होता हैं यह सब आपको करना होगा। महाविदेह की अनुभूति को प्राप्त करोगे तो मेरे यहाँ जन्म लेना सार्थक होगा। २७ मार्च १९६६ रविवार प्रात: उगते हुए सूरज की साक्षी में दिए गए ये आशीर्वाद, यह शिक्षा मंत्र २७ मार्च २००२ आबु (राजस्थान) से प्रस्थान करते समय चरितार्थ होने लगे। गुरु माता साध्वी डॉ. मुक्तिप्रभाजी ने कहा था देह से विदेह के आशीर्वाद तुम्हें तुम्हारे पिताश्री ने दिये थे आज विदेह से महाविदेह के विहार की मैं आज्ञा देती हूँ। देह से विदेह के आशीर्वाद होते हैं। विदेह से महाविदेह की आज्ञा होती हैं और और प्रारंभ हो गई नमोत्थुणं की यात्रा। विहार अर्थात् चलना । संसारी चलते हैं उसे चलना कहते हैं ,संयमी चलते हैं उसे विहार कहते हैं। विहार
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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