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________________ सही क्या अटकता है। उसने घिलोडीखोलकर नालछे में छोटी अंगुलि डालकर देखा तो अंदर घी ज्यादा न निकले इस हेतु एक रुई का फोहा रखा हुआ था। उसने फोहा निकाल दिया और घिलोडी ढककर रखकर चुपचाप बैठ गया। राजस्थानी महिलाओं को गाने का बडा शौख होता है। कोई भी काम करे जैसे जवाई को खाना खिलाती, गा के खिलाती है। उन्होंने घी की कुलछी पकडी सासुमां ने गीत गाया घी ने थूली रो सादो जिमन किधो कवर सां। मिच्छामि दुक्क्डं देवे सासु जमाई आज ॥ सासु माँ आई बोली लो कॅवरसा बैठा काई घी तो डालो चलो मैं ही डालती हूं ऐसा कहकर उसने घिलोडी उलटाई। पता क्या हुआ? सारा ही घी जमाई की थाली में गिर गया। उसे गलती की क्या हुयी पता नलगा। गलती ढूंढने से तो घी का सही उपयोग कैसे करूं यह सोचने लगी। सासु सोच रही थी। जवाई ने पूछा, माँ क्या सोचते हो? बोले आपने साथ खाने को कहा। हमारे पाली में जमाई के साथ बैठकर खाना खावे ऐसा रिवाज नहीं है। आप तो जमाने के सुधरे हुए हो। शहर से आए हो इसीलिए आप मुझसे आग्रह करते हो तो ठीक है मैं आपके साथ ही बैठकर ही खा लूंगी और ऐसा कहकर पूरा दलिया थाली में डाला और गाना गाते हुए थाली में लकीरे खिंचने लगी ताकि घी अपनी तरफ आ जाए - होली ने नही आया कवर सा याद किया था थाने, रवाजा गुंजारी कियो कडावो दिवाली रे माहें, थाने याद किया ने आंसू ढलक्या कंवरसा... मिच्छामि दुक्क्डं.... नआपं बेटी को लाए नहोली में न दिवाली में आए । जमाई बडे पहुंचे हुये थे क्योंकि वो आए थे अजमेर से। अजमेर का दामाद पाली में आया उसने कहा माताजी! दुख न लगावो। चिंता की कोई बात नहीं। आपके जैसा गाना तो नही आता पर थोडा बहुत गा सकता हूं ऐसा कहते हुए उसने साकर, घी और थूलि को थाली में गोलगोल घुमा दिया ताकि सारा घी थूली में समा जावे। सब पूरा लिक्वीड सा हो गया। और गाने लगा . होली दीवाली भले नी आयों छमछरी मनाऊं आज। . दुख पावो तो थानी बेटी रा सोगन थाने आज.... मिच्छामि दुक्कडं। . माजी ! मैं भले ही होली में नहीं आया दिवाली में नहीं आया पर आज छमछरी पूरी आपके साथ अच्छी तरह से मनाता हूँ। हमारे कोई भी व्यवहार से आपको दुःख लगे तो आपको अपकी बेटी की सौगंध हैं ऐसा कहकर थाली मुह को लगायी और पुरी घी सहित की थुली एक साथ पी गया। सासु मां अंदर के अंदर तो वाकई में रो रही थी। ऐसे भी मिच्छामि दुक्कडं होते है। समाज के इस शिष्टाचार के प्रति जाग्रत होकर आत्मस्पर्शना के मिच्छामि दुक्कडं होने चाहिए। ___ तीर्थ का दुसरा हेतु है तत्शीलता। परमात्मा कृतकृतार्थ है। शक्तिमय सामर्थ्य संपन्न है। तीर्थंकर नामकर्म के कारण तीर्थ करते है। तीर्थ के द्वारा तत्त्व की प्रभावना करते हैं। एकबार परमात्मा का अपार वैभव देखकर गौतम स्वामी को किसी महाशय ने पूछा था, क्या तीर्थंकर को ही ऐसा वैभव होता है? गौतम स्वामी ने कहाँ, हाँ। समवसरण आदि की रचना करने वाले देवों के इन्द्रों से पुछो तो जान पाओंगे वे स्वयं कहते है बिना तीर्थंकर
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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