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________________ कैसे खाना, कब खाना यह जानना बहुत जरुरी है इसे जानकर वैसा करना भी तप है। आणाए धम्मो । आणाए तवो । आज्ञा का पालन भी एक तप है। ऐसा तप बारह तप में कही नहीं मिलता। आज्ञा ही धर्म है आज्ञा ही तप है। खाने की पूरी सम्भावना होने पर भी प्रभु के प्रत्याख्यान को लेकर छोडना तप है। तो जो तप है उसके साथ प्रभु की आज्ञा जुड़ गई, सारा दिन कभी भूखे रह जाओ तो कभी नहीं कहते मुझे तप है मुझे उपवास है : आणाए धम्मो आणा तव । आज्ञा का जो दान करे वे भगवान । आज्ञा का जो पालन करे वह भक्त और आज्ञा का जो व्यवस्थापन करे वे गुरु, वे आचार्य वे उपाध्याय । J आपने द्रव्य परिणमन का सिद्धांत सुना होगा। ज्ञाता सूत्र इस सिद्धांत का साक्षी है। नाम से, आज्ञा से, अनुग्रह से द्रव्यों में परिवर्तन संभव हो सकता है। कल्याणमंदिर स्त्रोत्र में कहा है - पानीयमप्यमृतमित्यनुचिंन्त्यमानं, किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ।। अर्थात् परमात्मा का नाम लेकर पानी में अमृत का चिंतन करने से विष अमृत में परिवर्तित हो जाता है। भारत में मीरा ने प्रभु नाम से ही जहर को अमृत में परिवर्तित किया था । सोक्रेटिस को भी राजकारण ने जहर दिया था लेकिन उस विष ने सोक्रेटिस को मृत्यु दिलायी । पदार्थ की तरह शब्द में भी परिवर्तन की संभावना है। भगवान महावीर ने श्रेणिक से कहा था राजन ! शब्द जड होते है परंतु वे जिस प्रकार के भावों में परिणमते है वैसी चेतना की परिणति बनती है । कुछ शब्द कान में जाते ही कौतूहल उत्पन्न करते है। कुछ शब्द कान जाते ही कैवल्य ज्ञान उत्पन्न करते हैं। शब्दोंका अपना कोई सामर्थ्य नहीं होता है। सामर्थ्य भावों का होता है। महाराजा श्रेणीक एकबार समवसरण में आते हुए मार्ग में एक ध्यानस्थ संत को देखकर अहोभाव से अभिभूत हो गए थे। पास आकर उन्होंने प्रभु से पूछा प्रभु ! आपके समीप आते हुए मार्ग में एक तपस्वी संत के दर्शन कर मै अभिभूत हो चुका हू। प्रभु मानलो उनकी आयु अभी खतम हो वे कहा जाऐंगे ? प्रभु ने कहॉ प्रथम नरक में । हे प्रभु ! ऐसा कैसे हो सकता है ? श्रेणीक ने आश्चर्य से कहा । परमात्मा ने कहा, सम्राट ! दूसरी नरक में । प्रभु ! क्या बात करते हो आप। हाँ श्रेणीक ! तीसरी नरक में...... ऐसा करते करते परमात्मा ने कहा सातवी नरक में। सुनते ही श्रेणीक ने अपने दोनों हाथों से मस्तक पकड लिया। इतने में दुंदुभि के नाद सुनायी दिये। श्रेणीक ने पुछा प्रभु ! किसको ज्ञान हुआ ? परमात्मा ने कहा, हम जिनकी बात कर रहे हैं उनको। वे जिनका मार्ग में दर्शन कर तुम अभिभूत हो गये थे। श्रेणीक आश्चर्य समेत परमात्मा के पॉव पकड लिए। प्रभु ! धन्य है आपको। आपकी अबूझ या अनबूझ पहेली हम कैसे समझ सकते हैं। परमात्मा ने कहा, राजन ! यह संत है राजर्षि प्रसन्नचंद्र। राजपाट परिवार छोडकर दीक्षित हो गये। एकांत में ध्यान करने । अचानक उसी राज्यपर दुश्मनों के आक्रमण के शब्द सुनकर विचलित हो गए। आत्म क्षेत्र युद्ध क्षेत्र में परिवर्तित हो गया। बिना शस्त्रों के युद्ध हुआ। शत्रु के बिना शत्रुता ने युद्ध छेड दिया। राजन् ! इन्होंने शत्रु तो छोड दिये थे पर शत्रुता नहीं छोडी थी । इस कारण भाव युद्ध हुआ। उपादा शुद्ध था । भावों ने परिणाम को शुद्ध बनाया। निमित्त शुद्ध बना और इन्होंने कर्मक्षयकर कैवल्य प्राप्त कर लिया। 27
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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