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________________ चार चार मास कोशा ने स्थूलिभद्र को विचलीत करने के लिए वीर्य वर्धक, शक्तिवर्धक, विकृतिवर्धक, कामोत्तेजक विविध भोजन बनाए। कोशा का भोजन मुनि के पात्र में बहराते ही वह प्रसाद बन जाता था। आहार चाहे कुछ भी हो पर उन्हें मात्र पुद्गल मानकर प्रसाद के रूप में मुनि उसका उपयोग करते थे। उपभोग की व्याख्या उपयोग में अभिव्यक्त होती रही और मुनिश्री निर्विकार साधना में आगे बढ़ते रहे। कितने ही विकारवर्धक कार्यक्रम क्यों ना आयोजित किया जाए परंतु मुनिस्थूलिभद्रका भीतर निरंतर आत्मरंजन में रमण करता रहा। इसतरह चार-चार महिने समाप्त होने की तैयारी में थे। चातुर्मास पूर्ण होने जा रहा था। मुनिश्री जीते या नहीं यह हम नहीं कह सकते क्योंकि मुनिश्री यहाँ लडने या गेम खेलने नहीं आये थे। यहाँ न कोई कॉम्पेरिजनथीन कोई कॉम्पीटेशन । न थी शीबीर और न था सेमिनार। किस बात की हार और किस बात की जीत। मुनिश्री आये थे साधना करने। यहाँ थी साधना की सफलता, सत् का जय सत्त्व का जागरण। कोशा के लिए यह सबकुछ था। जय और पराजय का नापदंड था तो द्वन्द और प्रतिद्वन्द का मुकाबला था। श्रद्धा नहीं थी पर स्पर्धा, प्रतिस्पर्धा अवश्य थी। समर्पण नहीं प्रतिशोध था। गणित के सारे आयाम यहाँ आयोजित थे। परिणाम के लिए उत्सुक कोशा पूर्णिमा की अंतिम रात्रि में अपना अंतिम प्रयास आरोपित करना चाहती थी। पाटलिपुत्र की वह एक सर्वश्रेष्ठ नृत्यांगना थी। वह आज अपनी अभिव्यंजना राजनर्तकी के रूप में नहीं परंतु मुनिश्री के दिल में नर्तन प्रस्तुत करने जा रही थी। उसने अपनी सारी सखियों को विराम दिया और स्वयं जीर्ण वस्त्रों में वैकारीक अभिनय के साथ नृत्यशाला में प्रस्तुत होती है। आगंतुक दृष्टा आमंत्रित मुनिश्री भी अकेले प्रस्तुत हुए थे। मध्यरात्रि में उसने अपना सूचिकाग्र नामक महानृत्य प्रस्तुत किया। यह नृत्य केवलमात्र चरण के अंगुष्ठपर ही किया जाता है। नृत्य कला में इस नृत्य को अत्यंत जटिल और कठिन माना जाता है। बहुत कम नृत्यांगनाएं इस नृत्य की सफलता हासिल करती है। उस युग की वह एक मात्र नर्तकी थी जो अपने पूर्ण अंगभंग के साथ आकर्षक नृत्य पेश कर सकती थी। नृत्य करते हुए उसकी नजर मात्र मुनिश्री पर थी। कहीं वे आँखें तो बंद नहीं कर रहे। उसकी चाहना थी मुनिश्री स्वयं के साथ स्वयं न रहे परंतु प्रतिक्षण मुझे देखते रहे और मेरे महानृत्य के साक्षी बने रहे। उनकी आँखों में विकार या मेरा स्वीकार है उसे ढूंढती रही। नृत्य की अंतिम कलियों में भी वह किलकिलाती खिलखिलाती रही। रात्रि बीत रही थी पूर्णिमा पूर्ण होने जा रही थी। अविराम चलता हुआ नृत्य अब विराम और विश्राम की ओर विलीन हो रहा था। बीतती है रात। होती है प्रभात। पूर्णिमा भी पूर्ण हो गई और हो गया चातुर्मास भी पूर्ण। प्रकृति में प्रात:काल की आभा देखकर नर्तनभाव को नृत्यशाला में रखकर थकी और हारी हुई कोशा मुनिश्री के पास आकर कहती है, भद्र! मैं पराजय का स्वीकार करती हू। पराभूत होते हुए भी मैं आपसे एक समाधान चाहती हू।कल रात मैंने सूचिकाग्र नाम का नृत्य किया जो नृत्यों में अंतिम नृत्य माना जाता है। क्या आपने 243
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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