SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सकता है। इसलिए वह निज की संपत्ति मानी जाती है। नमो जिणाणं जिअभयाणं पद पर स्वपरसंपत हैं। नमस्कार हमारी अपनी संपत्ति हैं, परंतु हमारे ये नमस्कार जिनेश्वरों के प्रति होते हैं। अनंत गुणसंपन्न जिनेश्वरों के अनंत गुणों से जितभय के गुण को यहाँ प्रगट किया गया हैं। क्योंकि यह गुण हमें भी भय जितने में सहायता प्रगट करता है। सिद्धत्त्व की प्राप्ति में अंततक किसी न किसी स्वरूप में भय बाधक रहता है। मोक्ष यह अबाधित अवस्था अत: अंतिम पद को स्वपरसंपत कहा है । संपत्ति के इस स्वरूप को मात्र भौतिक संपत्ति के रूप में समझने की चेष्ठा मत करना। इसे भाव संपत्ति या अध्यात्म संपत्ति कहा जाता है क्योंकि भौतिक संपत्ति का ऐसा नियम हैं कि उसमें से किसी को कुछ देते हैं तो हमारे पास वह कम होता हैं। परंतु भाव संपत्ति में ऐसा नहीं होता हैं । परमात्मा का ज्ञान दर्शनको समझाते हुए ज्ञानी पुरुषों ने कहा हैं, कि ज्ञानदर्शन माँ के वात्सल्य जैसे होता है। जिसतरह माँ बच्चे को जन्म देती हैं तब बच्चे के आँख, नाक, कान आदि शक्तिस्रोतों का निर्माण स्वयं के पुद्गलों में से करती हैं फिर भी माँ कुछ कम नहीं होता हैं और बच्चे को वह पूर्णप्राप्त होता है । इसीतरह दीपक का दूसरा उदाहरण देखें। एक दीये में से अन्य दीपक प्रगट करनेपर सारे दीपक प्रथम दीये की तरह ज्योर्तिमान हो जाते हैं। परंतु एक दीये की ज्योति कम नहीं हो जाती हैं। भौतिक संपत्ति में हम १०० रू. में से ५० रू. अन्य को देते हैं तो हमारे पास ५० बचते हैं अर्थात् पचास कम होते हैं। भावसंपत्ति में ५० अन्य को देते ही हमें और ५० मिल जाते हैं। तो अन्य को ५० मिलते हैं हमारे ५० बने रहते हैं। नमोत्थुणं की साधना का अंतिम पद उपलब्धि हैं। पंचमश्रुत केवलि भद्रबाहु स्वामी के शिष्य स्थलिभद्रजी एकबार गलती से रूप परावर्तिनी विद्या का प्रयोग कर बैठे थे। तब गुरुदेव ने उन्हें आगे का विद्यादान करना बंद कर दिया था। समापन में स्थलिभद्रजीने निज के लिए गुरु को प्राथना की तब उन्होंने शिष्य को तीन विद्यायें दि थी - संबंधप्रज्ञा, सिद्धप्रज्ञा और संबोधप्रज्ञा । सिद्धप्रज्ञा यह शिवमयल आदि मंत्र की प्रज्ञा हैं। शेष रहा हुआ स्थुलिभद्र का जीवन इन दो विद्याओं में लयबद्ध था। उन्होंने गुरु से संबंधप्रज्ञा प्राप्तकर रूपकोशा के साथ संबोधप्रज्ञा के प्रयोग में लवलीन होकर स्वयं के साथ सिद्धप्रज्ञा में सुलीन हो गए थे। इतिहास का यह एक ऐसा पात्र हैं जो इन तीनों प्रज्ञाओं में एक साथ अनुभूत रहा है। घर परिवार का त्याग कर स्थुलिभद्र रूपकोशा के वहाँ बारह वर्षतक पति-पत्नी के संबंध में रहा । बारह वर्ष के गृह-संसार का त्याग कर गुरुचरण में जीवन अर्पण करते ही गुरु-शिष्य का संबंध संबंधप्रज्ञा में परिणत हुआ। गुरु ने स्थलिभद्र को उसी रूपकोशा के वहाँ चातुर्मास कर प्रज्ञा सिद्ध करने की साधना और परीक्षा हेतू आज्ञा दी थी। भद्र ! तुम्हें रूपकोशा की चित्रशाला में चातुर्मास कर उसे संबोधप्रज्ञा देनी हैं और तुम्हें सिद्धप्रज्ञा सिद्ध करनी हैं। गुरु आज्ञा से स्थुलिभद्र ने रूपकोशा के आँगन में आकर कहा, भिक्षा देही माम् ! स्थलिभद्र की आवाज सुनकर निरंतर आतुर और प्रतीक्षारत कोशा स्थलिभद्र की आवाज पहचान तो गई परंतु चित्र-विचित्र शब्दों को 241
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy