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________________ . नमोत्थुणं तिण्णाणं-तारयाणं तिरजाना उनकी साहजिकता है। तारलेना उनकी स्वाभाविकता है। इस सहजता और स्वाभाविकता से उनकी स्व-पर व्यवसाय करुणा हमारे कल्याण का कारण बनती है । तारना उनका स्वभाव है पर किसको तारना? कुछ जीव मछली जैसे है जो उसे ही जीवन मान बैठे हैं । उन्हें तो समुद्र से बाहर भी नहीं निकाला जाता है । पहले यह तय करों कि तिरना चाहते हो ? स्वयं को डूबा हुआ मानते हो ? डूबने से ऊबे हो क्या? तारना परमात्मा का स्वभाव है पर, उनको वे तारते है ; तिरना जिसका स्वभाव है । डूबने से जो ऊबा हुआ है। विश्वास करो वे अवश्य तारलेंगे जिन्हे डूबने का अहसास हो। जो डूबडूबकर ऊबा हुआ है । जो बचना चाहता हो।जो तिरना चाहता हो जो तारनेवाले की तीव्र प्रतीक्षा करता हो । तारनेवाले पर विश्वास करता हो। पूर्ण समर्पण । बस फिर कुछ बचना नही है । उनसे कुछ छीपता नहीं है । पुण्य पाप का हिसाब । जन्म-मृत्यु की किताब । रागद्वेष के सब करतब । सबकुछ उनके साथ । सब कुछ उनके पास । अलगअब कुछ नहीं। इस जन्म से यात्रा का प्रारंभ हो रहा है । अंतिम पडाव मोक्ष है । आप क्या सोच रहे यह सब होता रहता है । वह तारता है हम पुनः गिरते हैं। वह बचाता है हम फिर वही करते हैं जो हमारी अनंत जन्मों की आदत है । बचाना उनका स्वभाव है । गिरना हमारा स्वभाव हो गया है। स्वभाव नहीं है पर आदत है । मजबूरी मानते है पर यह हमारी कमजोरी है। नमोत्थुणं से जुड जाओ । “तिण्णाणं तारयाणं" मंत्र से जुड़ जाओ । अनंत गणधरों के योगबल से जुड जाओ । दुनिया की कोई चीज अपको विकास यात्रा में नहीं रोक पाएगी। आप स्वयं अपनी इस भाव-यात्रा में स्वयं को भगवान महसूस करोगे । अपको अनुभूति होगी कि आप पार्ययबोध के कारण डूब रहे हो । आप शास्वत चैतन्य अनंतदर्शी आत्मा हो । गणधर भगवंत आपकी रक्षा कर रहे है । बच्चे को माँ उठाती है वैसे गणधर भगवंत उठाते हैं । परम करुणानिधान अपनी गोदी में हमें प्रस्थापित करते हैं। याद रखना अनंत जन्मों की आदत हैं। वह तारता हैं हम पुनः पुनः गिरते हैं। वह बचाता हैं हम फिर वही करते हैं। जो हमारी जन्मोजन्म की आदत है। फिर भी जब एकबार उनको सोंप दिया वह अवश्य तारता हैं। सवाल हैं समर्पण का। स्वयं को तारने के लिए संकल्प का। अब यदि इस बात का स्वीकार है तो आइए जुड जाइए इस यात्रा में। जीवन बदल जाएगा। पर्याय सफल होगी। सीधा मोक्ष तो नहीं होगा परंतु आगामी भवयात्रा पवित्र होगी। अब सब कुछ उनकी नजरों से हो गुजरे गा। अनुभव होगा कि मैं इस पर्याय से अलग है। परमपुण्य से नमोत्थुणं द्वारा परमतत्त्व का संयोग मिला है। संकल्प करो कि मुझे तीरना हैं तो परमतत्त्व से हमें कुछ नहीं चाहिए। केवल पात्र को पानी में छोडकर मै तिरता हूँ, मेरी पात्री तैरती है,कहनेवाले अतिमुक्त कुमार की इस प्रक्रिया के बारें में स्थविरमुनियों के द्वारा परमात्मा को ऐसा पूछा जानेपर कि "भगवन् ! आपका शिष्य 217
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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