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________________ अप्रतिहत। हत अर्थात् चोट लगना, टकराना। हत शब्द का प्रयोग आप कईबार करते हैं। बच्चा जब गिर जाता हैं तब वह जोर से रोता है। उसके पास जाकर आप यह नहीं देखते कि उसे कहाँ लगा हैं, क्या लगा है, कितना लगा है? परंतु आप जाते ही वहाँ के टेबल या फर्शपर हाथ पटककर हत कहते हैं। आप बच्चे की स्थिति को जानते हो कि वह दो ही कारण से गिरता या रोता है। एक तो नया नया चलना सिखा हो, गति में संतुलन न हो और दूसरा माँ के व्यस्त रहनेपर उसे अपनी ओर इंगित करने के लिए गिरने और रोने का नाटक करता है। हम जानते हैं कि हत करने से टेबल फर्श को नहीं लगता पर हमारे हाथों को लगता है। हत शब्द के पूर्व प्रति शब्द लगने से प्रतिहत शब्द बनता है। प्रतिहत अर्थात् गिरना। जो गिरता है उसे लगता है एकबार परमात्मा के चरणों में झुक जानेपर गिरना और लगना सब बंद हो जाता है। प्रतिहत के पूर्व अशब्द लगनेपर न गिरना, न लगना। पूर्णज्ञान, केवलज्ञान को अप्रतिहत कहा गया। जिसका कभी अंत नहीं होता वह अनंत है। आत्मा के उपर लगे हुए कर्म के आवरणों के हट जानेपर वे आवरण पुनः आक्रमण नहीं करते हैं। आत्मा की पूर्णतः निरावरण स्थिति शुद्ध स्वरुप अक्षय अव्याबाध स्थिति प्रगट हो जाती है। कभी वापस नहीं लौटने के कारण वह अप्रतिहत कहलाता है। इसे अप्रतिपाति भी कहते हैं। ऐसे उत्तम ज्ञान और दर्शन के धारक परमात्मा को इस पद के द्वारा नमस्कार किए जाते हैं। केवलज्ञान अर्थात् पूर्णज्ञान, संपूर्णज्ञान, परिपूर्णज्ञान। इस पूर्णज्ञान के प्रगट होनेपर केवलिप्रभु केवलज्ञान के प्रभाव से साक्षात् आत्मा द्वारा पाँच इद्रिय और मन की सहायता लिए बिना एकसाथ अक्रम से तीनों काल के रुपी अरुपी सर्व पदार्थ और उनकी सभी पर्यायों को बिना प्रयास, बिना प्रयोग और बिना उपयोग के एक साथ जानते और देखते हैं। मोक्ष प्राप्ति हेतु केवलज्ञान, केवलदर्शन धारण करना आवश्यक है। भगवती सूत्र में भगवान महावीर ने कहा है, भूत, भविष्य और वर्तमान में जो भी जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाणपद को प्राप्त हुए है, जिन्होंने समस्त दुःखों का अंत किया है और जो समस्त कर्मोंका अंत करनेवाले चरमशरीरी हुए हैं उन सर्व ने केवलज्ञान को प्राप्त कर सर्वदुःखों का अंत किया है, करते हैं और करेंगे। इसतरह केवलज्ञान मोक्ष में ले जानेवाला आवश्यक तत्त्व है। आठ कर्मों में चार घाती कर्म हैं, चार अघाती कर्म हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार कर्म आत्मा के अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र और अनंतवीर्यगुण का घात करते है अत: इन्हे घातीकर्म कहते हैं। घातीकर्म का अर्थ है जो आत्मा के निजगुणों में हानि पहुंचाते हैं इसके दो प्रकार है - सर्वघाती और देशघाती। जो कर्म प्रकृति ज्ञानादिगुणों का सर्वांश से घात करता है उसे सर्वघाती कहते हैं। जो कर्म प्रकृति ज्ञानादि गुणोंका आंशिक घात करते हैं उन्हें देशघाती कहते हैं। जो कर्म आत्मा के ज्ञानादिगुणों का घात नहीं करते हैं उन्हें अघातीकर्म कहते हैं। वेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्रकर्म अघाती कहलाते हैं। जिस तरह सूर्य का प्रकाश और आतप दोनों साथ साथ रहते हैं। वैसे ही केवलज्ञान और केवलदर्शन साथ साथ रहते हैं। कर्मक्षय की दृष्टि से पहले मोहनीयकर्म का संपूर्ण नाश होता है। बाद में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय का एकसाथ नाश होता है। ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानशक्ति में बाधा पहुंचाता है। 206
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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