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________________ नमोत्थुणं दीवोताणं सरणगइपइट्ठाणं जो दूर से दिखाइ देकर रक्षण करता हैं उसे द्वीप कहते हैं । जो करीब आकर रक्षण करता हैं उसे शरण कहते हैं। जो रक्षण और शरण के द्वारा आगे बढाता हैं उसे गति कहते हैं। गति में वेग देकर मंजिल तक पहुंचा देता हैं उसे प्रतिष्ठान कहते हैं। द्वीप आधाररूप हैं, गति शरणरूप हैं और प्रतिष्ठान प्राप्तिरुप हैं। धर्मचक्रवर्ती के चक्र से चल रहे रथ के द्वारा स्थल का चक्रमण करते करते अब हम जलमार्ग का संक्रमण करते है। 'चक्र चलता हैं द्वीप स्थिर रहता हैं। चक्र चलकर मार्गदर्शन करता हैं और द्वीप स्थिर रहकर मंजिल दिखाता हैं । चक्र गति का प्रतीक हैं और द्वीप स्थिति का प्रतीक हैं। चक्र चार का अंत करता हैं । द्वीप रक्षण, शरण, गति और प्रतिष्ठा का प्रारंभ करता हैं। चक्र विघ्न का अंत करता है । द्वीप मंगल की आदि करता हैं। इस पद में पाँच शब्दों का प्रयोग हुआ हैं। दीवो + ताणं + सरण + गइ + पइट्ठाणं । दीवो शब्द के दीप और द्वीप ऐसे दो अर्थ होते हैं। यहाँपुर द्वीप अर्थ ग्राह्य हैं। अगाध समुद्र में डुबते हुए मनुष्य, मगरमच्छ आदि अनेक जलचर जीवों से भरे हुए जल प्रवाह के मध्य में द्वीप होता है इसे बेट भी कहते हैं। चारों ओर पानी हो और मध्यस्थान में सभी प्राणियों के लिए आश्रयस्थानरुप द्वीप होता है । द्वीप के मध्यस्थान में एक स्तंभ होता है। इसे दीवादांडी कहते है। उस दीवादांडी में दूर से दिखाई दे ऐसे प्रकाश की व्यवस्था की जाती है। इस व्यवस्था के कारण प्रवासियों को अपनी गंतव्यदिशा का बोध होता है। मार्ग से सशंकित यात्री इस प्रकाश के माध्यम से आगे बढते है। माध्यम बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। आवश्यक नहीं कि नौका दीवादांडी का स्पर्श करे तब उसे दिशा का बोध हो । द्वीप तक पहु जाने के बाद तो उसे आसरा चाहिए, रक्षण चाहिए, शरण चाहिए। द्वीप का मुख्य काम दूर से मार्गदर्शन करना है। द्वीप के बाद समानअर्थी दो शब्द हैं ताणं और शरणं । ताणं अर्थात् रक्षण। आचारांग में इन दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग किया गया हैं । जिसमें यह स्पष्ट रुप से समझाया गया हैं कि रोग या मृत्यु के समय संगीसाथी सहोदर सहयोगी आदि कोई भी णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए । हारा न तो रक्षण करेंगे न तुम्हे शरण देंगे। आप सोचोगे कि वे हमें शरण रक्षण नहीं देंगे परंतु हम तो उनका रक्षण कर शरण दे सकते हैं परंतु ज्ञानी भगवन कहते हैं - तुमंपि तेसिं णालं ताणाए वा, सरणाए वा । तुम भी उनका न तो रक्षण कर सकते हैं न तो शरण दे सकते हैं। केवल परमात्मा ही रक्षण करने में और शरण देने में समर्थ हैं । जैसे विशाल जल से आप्लावीत स्थान में द्वीप आलंबनभूत होता है, वैसे परमात्मा जलस्थान में डूबते हुए जीवों के लिए रक्षणरुप और शरणरुप हैं। यहाँ हमें दो क्रियाएं समझनी हैं। रक्षण करना और शरण पाना। डूबता हुआ प्राणी सहारा ढूँढता हैं। आलंबन ढूँढता हैं । द्वीप दूर से दिखाई देता है। उसकी अपनी एक अलग पहचान होती है। पहचाना जाता हैं दिखायी देता हैं। देखते ही डूबता हुआ प्राणी क्या सोचेगा ? खुश हो जाएगा ? या सोचेगा कि यह द्वीप कितना बड़ा होगा ? उसका क्या नाम होगा ? कौन उसका रक्षक होगा? वहाँ कैसी व्यवस्था होगी। क्या 198
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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