SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साथ खीरान्न से पारणा कराना आदि अनेक लब्धि संपन्न घटनाएं उनके साथ जुडी हुइ हैं। इन सबसे भी अधिक विशेषता तो यह थी की उनके प्रभाव से दीक्षित सभी उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गए हैं। ऐसा तारक प्रभाव केवल गौतम स्वामी का था परंतु वे परमात्मा के निर्वाण के समय वहाँ अनुपस्थित होने से और उसी रात में केवली बन जाने के कारण शासन के सत्ताधीश सुधर्मा स्वामी घोषित हुए। वर्तमान में प्रचलित पाट परंपरा सुधर्मा स्वामी की है। आप भले ही इन पाटोंपर दान दातओं के नाम लिखो परंतु इस पाट का परंपरागत नाम सुधर्मा स्वामी पाट है। इसपर बैठकर भाषण संभाषण नहीं होते हैं इसपर से तो प्रभु की देशना का ही दान होता है। सुधर्मा स्वामी स्वयं पाटपर बिराजने से पहले पाट को प्रदक्षिणा करते हुए- णमो तित्थस्स मंत्र का उच्चारण करते है। भगवान की आज्ञा मांगते हैं और परिषदा में घोषित करते हैं कि इस पद के वास्तविक अधिकारी गौतमस्वामी की अनुपस्थिति में मैं इस पद को सम्हालता हूँ। जब तक मैं सत्तापर रहूंगा तब तक मेरा सत्तापर अधिकार रहेगा। यथोचित समयपर इसका अधिकार अन्य को सौंपा जाएगा परंतु गौतमस्वामी का मैं गुरुपद के रुप में स्वीकार करता हूँ। भगवान महावीर के शासन में वे आज भी गुरु हैं और हमेशा गुरु के रुप में पूजे जाएंगे। आदिगुरु गौतमस्वामी के बिना कोई भी अनुष्ठान अधूरा माना जाएगा। समस्त अनुष्ठान, अनुप्रेक्षा और अनुभूति ये तीनों परमगुरु गौतमस्वामी को समर्पित हैं। भविष्य में भी भगवान महावीर के शासन में सभी गुरुओं को गौतमस्वामी का परमगुरु के रुप में स्वीकार करना होगा। गुरुपद की योग्यता का सर्वाधिक, सर्वोच्च, सर्वोत्तम यह सिद्धांत चलेगा। इसतरह गौतमस्वामी को गुरुपद के रुप में घोषित कर स्वीकृत करते हुए उन्होंने शासन का अनुशासन स्वीकार किया और प्रशासन का प्रवर्तन किया। जो धर्म देशना करते है उन्हें धर्मदेशक कहते हैं। धर्मोपदेशक अनेक हो सकते है और धर्म देशक मात्र तीर्थंकर होते है। भूत, भविष्य और वर्तमान में जो भी तीर्थंकर हैं उन सबकी देशना एक ही तरह की होती है। ते सव्वे एवं इस कथन पर हम पहले चिंतन कर चुके हैं। अपनी प्रथम देशना में वे जीव के स्वतंत्र अस्तित्त्व के बोध की खोज का उद्घाटन करते हैं। प्रत्येक जीव का स्वतंत्र अस्तित्त्व है। अज्ञान के कारण वे देहभाव को जीव के साथ एकरुप प्रतीत करते हैं। परिणामत: उनकी क्रिया भी वैसी ही होती है। जब एकरुपता हटती हैं जीव अपने अस्तित्त्व के बोध की खोज शुरु करता है। परमात्मा की प्रथम देशना इस बोध का उद्घाटन हैं। अस्तित्त्व बोध की यात्रा में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम जीव को कैसी जिज्ञासा हो सकती है। इस बात को भगवान महावीर ने अपनी प्रथम देशना के प्रथम सूत्र में ही घोषित करते हुए कहा - के अहं आसी? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ? मैं कौन था? और यहाँ से च्युत होकर कहाँ जाऊँगा? यह जिज्ञासा सार्वजनिक जिज्ञासा हैं। देशना का शाब्दिक विन्यास भी देशना के अभिप्राय को स्पष्ट करता हैं। दे अर्थात् देना जो देते हैं। श अर्थात् शक्ति, सत् और शासन। तीर्थ की रचनाकर प्रभु शासन की स्थापना करते हैं। धर्म अंगीकार कर हम शासन में स्थान ग्रहण करते हैं। देशना परमात्मा के निर्वाण के बाद भी हमें शासन में समाहित रखती हैं। इसतरह देशना परमात्मा की पर्याय हैं। परमात्मा के हस्ताक्षर हैं। परमात्मा की तेजोलेश्या है। 179
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy