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________________ आपको स्वभाव, निसर्ग। ओर भीतर जाओगे तो मिलेगा स्वरुप। निसर्ग के पार जो ब्रह्म हैं वह स्वरुप हैं। लेकिन यदि आप स्वभाव से ही डर जाओगे तो भीतर ना जा पाओगे। फिर आप बाहर बाहर घुमेंगे अथवा स्वभाव से विपरीत अपने चारों तरफ एक दिवाल बना लेंगें। उस दिवाल का नाम हैं व्यक्तित्त्व, पर्सनालिटी। धर्म को प्राप्त करना द्रव्यलाभ है और धम्मदयाणं को प्राप्त करना भावलाभ है। धर्म अनेक भवों से मिलता रहता हैं परंतु धम्मदयाणं जिस भव में मिलते हैं उस भव में धर्म फलता हैं। प्रभु के धर्मदान के परिणाम का संब जीवोंपर होनेवाले प्रभाव से शासन की प्रर्वतना होती हैं। समस्त भूमंडल में प्रभु की समग्रता धर्मजय के रुप में प्रवर्तित होती है। जगत् के सभी जीवों के प्रति धर्मदान कर परमात्मा कृतकृत्य होते हैं। परमात्मा के धर्म का मुख्य हेतु है शाश्वत को शाश्वत मानना और अशाश्वत को अशाश्वत मानना। धर्मकथन कितना छोटा हैं। आसान भी है। इसे नहीं समझना अधर्म है। इसीलिए धर्म को जानने का कहा गया है। धर्म क्रिया नहीं समझ है जिसे जानना चाहिए। पुच्छिस्सुणं में कहा हैं, 'जाणाहि धम्मं च धीइंच पेहा' यहाँ दो तत्त्व कहे हैं धर्म और धैर्य। यहाँ दो क्रिया भी कही हैं जानना और प्रेक्षा करना याने देखना। देखते रहना। कैसे जाना जाएगा धर्म? धर्म को एकांत हित का हेतु माना गया है। पुच्छिस्सुणं में ही इसे इस रुप में व्याख्यित किया है। श्रमण ब्राह्मणों ने परमात्मा को एकांतहित रुप धर्म का कथन करनेवाले के रुप में जाने थे। यही उन्होंने पूछा था कि एकांतहित का कथन करनेवाले प्रभु कहाँ गए? किसने पूछा यह महत्त्वपूर्ण नही है परंतु क्या पूछा यह महत्त्वपूर्ण हैं। क्योंकि भारत की संस्कृति पूछने की हैं। पूछने के साथ साथ पूजना भी भारत की संस्कृति में महत्त्वपूर्ण माना गया है। जैन संस्कृति पूछने, पूजने के साथ पुंजने को भी महत्त्वपूर्ण मानता है। यहाँ से केइ णे प्रश्न में इन तीनों संस्कृतियों का समायोजन निहित है। तीनों का समायोजन जिस धर्म में हो वह एकांत हित धर्म होता है। एकांत हित का धर्म कथन करनेवाले से अर्थात् वे महावीर कहाँ गए? ऐसा प्रश्न यहाँ पूछा गया है। इसमें धर्म के चार प्रकार निहित है - हितधर्म, मितधर्म, प्रीतधर्म और रीतधर्म। जहाँ हित होता हैं वहा मित, प्रीत और रीत अवश्य होते है। बिना प्रीत के हित कैसे हो सकता है? परमात्मा जगत् के सभी जीवों के साथ वात्सल्यभाव रखते है। सर्वजीवकरु शासनरसीक की रीत के द्वारा सर्व के हित की सुरक्षा परमात्मा के धर्म का मुख्य हेतु रहा। धर्म समझाते हुए परमात्मा कहते हैं जड को जड और चेतन को चेतन मानो। शाश्वत को शाश्वत और अशाश्वत को अशाश्वत मानो। जो पदार्थ बाहर हैं उसे खुद के बनाने की बालिशता जीव अनादिकाल से कर रहा है। ज्ञानी पुरुष इसे समझाने के लिए एक उदाहरण देते है- एकबार कोई पागलखाने की मुलाकात लेने गया था। वहाँ उन्होंने एक प्रश्न किया कि यहाँ से छुट्टी देने के पूर्व इनका परीक्षण कैसे किया जाता है? उन्होंने कहा हमनें नीचे एक पानी का हौज रखा है। परीक्षण के लिए इन्हें हम हौज में छोडते हैं और एक बरतन देकर हौज में से पानी बाहर फेंकने का कहते हैं। दरअसल इस प्रक्रिया में परीक्षण के पूर्व ही कोने में पानी आने का नल खुला छोडा होता है। पानी बाहर फेंका जाता है उतना ही अंदर आता रहता है। पागलपण से मुक्त हुआ सदस्य हौज में पहले पानी आना बंद करके निकालना शुरु करता है परंतु जो पागल होता है वह यह प्रक्रिया करता हैं। पानी आता रहता हैं वह 171
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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