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________________ नमोत्थुणं चक्खुदयाणं आँख खोलकर दिखता है वह संसार हैं। आँख बंदकर दिखते हैं वे भगवान हैं। आँखे देकर, आँखे खोलकर संसार की ओर देखना सिखाती हैं उसे माँ कहते हैं। आँखे बंदकर भगवान के दर्शन करना सिखाते हैं उन्हें महात्मा कहते हैं। आँखे बंदकर स्वयं को देखना सिखाते हैं उन्हें परमात्मा कहते हैं। मत्सूत्र के चक्खुदयाणं पद में प्रवेश पाते ही विश्वास हो जाता हैं कि हममें भगवतसत्ता निश्चित हैं। पंथ देखकर कदमभरकर मार्गपर चलने का सामर्थ्य प्रगट करने का उत्तरदायित्त्व गणधर भगवंत का हैं । चक्षु छह प्रकार के हैं :१) चर्मचक्षु : २) आत्मचक्षु : ३) आगमचक्षु :४) अंतर्चक्षु चउरिन्द्रिय से उपर के सभी प्राणी चर्मचक्षुवाले होते हैं। ज्ञान प्राप्त होनेपर जीव आत्मचक्षुवाले होते हैं । साधु महात्मा आगमचक्षुवाले होते हैं। सद्गुरु भगवंत अंतर्चक्षुवाले होते हैं। देव अवधिचक्षुवाले होते हैं। : ५) अवधिचक्षु : ६) दिव्यचक्षु : सिद्ध भगवान दिव्यचक्षुवाले होते हैं। आज हमें चक्खुदयाणं पद की उपासना करनी हैं। हमारा मंत्रार्पण होता हैं और परमात्मा हमारे मंत्र का स्वीकार कर हमें चक्षु का दान करते हैं। चक्षु देते हैं इसलिए हम उन्हें चक्षुदाता कहते हैं। चक्षुदान मृत्यु के समय कई लोग करते हैं। कभी कोई जीवित व्यक्ति चक्षुदान नहीं करता हैं। मृत्यु के पूर्व जीवन में वील करते हुए उसमें मेरे चक्षु का दान करना ऐसा लिखते हैं। ऐसी सूचना करनेवाले तो कई मिलते हैं परंतु भीतर की आँखे 'खोलकर स्वयं को देखने के चक्षु का दान करनेवाले और नमोत्थुणंरुप वील में भीतर को प्रगटकर चक्षुदाता बनानेवाले चक्खुदयाणं परमात्मा ही हो सकते हैं। दो पलकों के बीच में से आँखे निकालकर रुई का फुहा रखकर धीरे से पलकों को बंद करने से चक्षुदान की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती हैं। प्रभु तो भीतर की आखों के सामने स्वयं की आँखों के द्वारा तत्त्व पीलाकर वात्सल्य देकर अंतर्चक्षुतक आत्मधारा पहुंचाकर सम्यक्दृष्टि का उद्घाटन करते हैं । उस प्रक्रिया को चक्षुदान कहते हैं। परमात्मा जिन चक्षु का दान करते हैं उन्हें दिव्य नयन कहते हैं। आनंदघन प्रभु ने इस बात को अत्यंत सहजभाव में बताई हैं चरम नयन करी मारग जोवता भूल्यो सकल संसार । जे ने करी मारग जोइए नयन ते दिव्य विचार ॥ आचारांग सूत्र में चक्षुदान का स्वरुप समझाते हुए चित्तणिवाति शब्द का प्रयोग किया हैं। चित्तणिवाति अर्थात् चित्तनिपात। परमात्मा का और गुरु का चित्तनिपात पूर्वक चक्षु का और दृष्टि का हमपर निपात होता हैं। 139
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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