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________________ अभय मिल जाएगा। कभी ऐसा मत कहना की प्रभु कुछ देते नहीं हैं। प्रभु हमें जो देते हैं ओर कोई दे भी नहीं सकता। आज प्रभु की दानशाला खुल गई है। दान मिलने का आज शुभारंभ हैं। आजसे शुरु हो रहे सातों पद सहज देने की ही बात करते हैं। अनादिकाल से हमारा यह आदान-प्रदान के ऋणानुबंध से संबंधित संसार चलता ही आ रहा है। प्रभु के साथ के आदान-प्रदान के संबंध की शरुआत हो जाए तो अनादि काल के संसार का पूर्णविराम हो जाता हैं। ४८ मिनिट का सामायिक भी हमारे अल्पविराम कहो या अर्धविराम परंतु हमारी इस यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण विभाग बन जाता हैं। भंते शब्द के संबोधन से ही संबंध की शुरुआत हो जाती हैं। जो भव का अंत करे, जो भय का अंत करे और जो भ्रमणा का अंत करे उसे भंते कहते हैं। भंते आते हैं और भय टल जाता हैं। वे ही अभयदयाणं बनकर अभय देते है और हम करेमि भंते कहकर उनसे अभय प्राप्त कर जगत् के सभी जीवों को भयमुक्त कर देते हैं। सर्व जीव हमारे साथ मैत्रीमय संबंधों से बंध जाते हैं। संबंधों की यह कैसी निर्बिध यात्रा? कैसा प्रकट वरदान। हमें अभय भी देवे और हमें अभय के दाता भी बना दे। अभय पाओ और अभय दो की इस प्रयोगशाला में प्रवेश पाते ही एक गहन शांति का अनुभव होता हैं। शास्त्र साक्षी बनकर अस्तित्त्व में सत्य प्रगट करते हैं और कथाएँ अनुभव से तथ्य प्रगट करते हैं। ___चलो एक ऐसे ही सत्य और तथ्य को पाने के लिए हम उत्तराध्ययन सूत्र की अंतर यात्रा करते हुए पहुंचते हैं एक ऐसे गार्डन में जिसका नाम हैं केसरी उद्यान। यहाँ वन, उपवन की माया और संतो के तपोवन की शीतल छाया हैं। कुछ पंक्तियाँ आपको याद होगी शुभ शीतलतामय छांय रही, मनवांछित ज्यां फळ पंक्ति कही। जिनभक्ति ग्रहो तरकल्प अहो, भजीने भगवंत भवंत लहो॥ कईबार जो तपोवन संत की साधनाभूमी होता है। वह सम्राट की भोग भूमी भी हो सकता है। संयमियों की योग भूमि सम्राट की क्रिडा भूमि हो सकती हैं। समस्त भूतल को भोगने की भावना वाले राजा इसी भूमिपर अनेकों का भोग लेता रहा। एकबार राजा एक निर्दोष हिरण के पीछे पड़ गया। हिरण भग रहा था राज भी उसके पीछे भग रहे थे। किसी भी भोगपर आज मैं तेरा शिकार करके रहूंगा। ऐसी मारने की तीव्र भावना के साथ राजा भी उसके पीछे भग रहा था। हिरण के पीछे भगता हुआ राजा अचानक एक आश्चर्यकारी दृश्य देखकर दंग हो गया। उसने देखा कि इस केशर उद्यान में एक शांत प्रशांत संतमुनि कायोत्सर्ग मुद्रा में सल्लीन हैं। सयंम और ध्यान में तल्लीन ये तपोधनी अनगार अनेक पत्र, पुष्फ, फल, वृक्ष और लताओं से मंडित सुशोभित उद्यान में ध्यानस्थ थे। लता मंडप में मुनि की अद्भुत आभा और प्रभा प्रसारित हो रही थी। भयभीत बच्चा जैसे माँ की गोद में आश्रय पाकर निश्चित हो जाता हैं वैसे ही हत् प्रतिहत् आघात पाया हुआ राजा के बाण से आहत हिरण सीधा मुनि की गोदि में जाकर बैठ गया। मिट्टी से संश्रित उसके चारों पांव मुनि के गोद में समा गए। माथेपर तीर लगने से खून निकल रहा था। ऐसा आहत् माथा उसने मुनि के अनाहत हृदय के पास लगा दिया। जैसे गर्भस्थ शिशु और उसकी माता की धडकन एक होती हैं वैसे ही हिरण के तीव्र सासों की धडकन ने मुनि के शांत और धीमे श्वास के साथ संतुलन बना लिया। भावनाओं के साथ भावों की लय बंध गई। आहत प्राणधारा अनाहत आभा में शांति पाने लगी। 130
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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