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________________ नमोत्थुणं लोगपज्जोयगराणं जो स्वयं दिखाई ना दे परंतु समस्त लोक को दिखाई दे उसे प्रद्योत कहते हैं। प्रद्योत अर्थात् उद्योत । उद्योत अर्थात् उजाला । लोक में प्रद्योत तब होता हैं जब रात पूर्ण हो जाती है । लोक में प्रद्योत तब होता हैं जब प्रभात हो जाती है । जीवन में प्रद्योत तब होता हैं जब प्रभु का साथ होता है । जीवन में प्रद्योत तब होता हैं जब प्रभु से बात होती है। आइए आज हम सब उजाला प्राप्त करें । लोक के हित स्वरुप, आत्मप्रदीप स्वरुप, परमार्थदीपक स्वयं लोक में रहे हुए जीवों के अंतःकरण में पधारकर अंधकार का हरण करते हैं और प्रकाश पहुंचाते हैं। ऐसे प्रद्योत की बात करते हुए गणधर भगवंत जगत् के जीवों की दो कक्षा बताते हैं- • १. जिन्हें अधंकार की आदत हो गई हैं, जिन्हें अंधकार ही अच्छा लगता हैं। बिचारे कुछ जीवों को उजाले का पता नहीं वे अधेरे में ही रहते हैं । जिन्होंने कभी प्रकाश देखा ही नहीं और न तो प्रकाश का अनुभव किया है। जिन्हें हम व्यवहार भाषा में अंधेराप्रुफ़ कहते हैं। २. दूसरी कक्षा के वे जीव हैं जिन्हें कभी कभी उजाला देखने का अवसर प्राप्त होता है अत: वे अंधकार में से उजाले में आने का प्रयास करते है । आज हम उनकी बातें करेंगे जिनको उजाले की आवश्यकता हैं। जिन्हें उजाले की आवश्यकता समझ में आयी हैं, जिन्हें उजाले को पाने की अभिप्सा हैं, जिन्हें उजाला पाने के लगन लगी हैं। जो प्रभु चरणों में स्वयं को अर्पित कर परमात्मा से कह रहा है, हमें उजाला चाहिए ही। हमें उजाला ही चाहिए ओर कुछ नहीं। हमारी ऐसी प्रार्थना सुनकर गणधर भगवंत कहते हैं - कल तो तुम्हें दीपक स्वरुप में प्रभु मिल गए न ? अब तुम्हें और क्या चाहिए ? दीपक को जब चाहो तब प्रगट कर सकते हो । जहाँ चाहो वहाँ ले जा सकते हो। फिर अब तुम्हें क्या चाहिए? आज हमें गणधर भगवंत के इन प्रश्नों का उत्तर देना है। उन्हें कहना हैं प्रभु ! परमात्मारुपी दीपक प्रगट | कर । अंधेरे में भी उजाले का विस्तार करने का महासामर्थ्य प्रगट कर आपने हमपर अनंत उपकार किया है। यह सब प्राप्त करके भी प्रभु हमें ओर कुछ कहना है, हमें कुछ चाहिए। हमारी इस इच्छा को केवल आप ही मात्र पूर्ण कर सकते हैं। पहली बात तो यह हैं कि दीये के लिए हमें सदा प्रॅक्टीकल रहना पडता है। दीया चाहिए, बत्ती चाहिए, तेल चाहिए फिर ज्योत जलानेवाला चाहिए, फिर ज्योत का स्पर्श हो, उजाला हो इसतरह लंबा इंतजार करना पडता है। यह प्रतीक्षा हमें मंजुर नहीं है। 118
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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