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________________ 9. विगई और महाविगइ [ अभी मेरे पास बोम्बे हॉस्पीटल इन्स्टीट्युट ऑफ मेडीकल सायन्स द्वारा प्रकाशित 'रोल ओफ वेजिटेरियन डाइट इन हेल्थ एण्ड डीसिज' किताब आयी है । उसमें अनुक्रम के पहले Our contributors विभाग रखा है और उसमें सब लेखकों, डोक्टरों जिन्होंने पुस्तक में लेख लिखे हैं, उनके फोटो दिये हैं । इसी पुस्तक में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एक भी लेखकडॉक्टर जैन नहीं है । सभी अपने अपने विषय के प्रकाण्ड विद्वान हैं । उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान कार्य के आधार पर शाकाहार की पुष्टि की है । विगई और महाविगई के बारे में लिखे गये इस लेख में इस पुस्तक का मैंने आधार- उपयोग किया है - लेखक ] 'जैन धर्म का दार्शनिक पक्ष युक्ति युक्त है, अतः अकाट्य है । उसके आगे पिछे कोई प्रश्न चिन्ह नहीं है; किन्तु जहां तक भूगोल, खगोल, खाद्य - अखाद्य आदि का प्रश्न है विभिन्न युगों में तरह तरह के दबाव उन पर आये हैं; अतः यदि उन्हें लेकर कुछ शंकाएँ सामने आती हैं तो इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है । '1 पिछले चार-पांच दशकों में विज्ञान ने विशेष प्रगति की है । आज प्रत्येक मनुष्य विज्ञान की इन सिद्धियों से प्राय: अभिभूत है, अत: वह धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, व आचारशास्त्र के प्रत्येक सिद्धांत - नियम का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही विचार करता है । खाद्य - अखाद्य के बारे में भी समय समय पर ज्यादा नहीं किन्तु बहुत ही अल्प मात्रा में परिवर्तन होता रहा है । अतः वर्तमान में उन परिवर्तन युक्त खाद्य-अखाद्य संबंधित विचारों की छानबीन करना अत्यावश्यक है । इस विषय को लेकर शायद एक किताब लिखी जाए इतनी सामग्री उपलब्ध है किन्तु यहाँ पर शब्दों की मर्यादा के कारण केवल विगई और महाविगइ के बारे में ही विचार किया जाएगा । विगइ या विगय शब्द मूलत: प्राकृत है, उसका संस्कृत स्वरूप है विकृति । जो पदार्थ आत्मा और मन की मूल प्रकृति / स्वभाव / स्वरूप में परिवर्तन लाकर उसे विकृत करने में समर्थ हैं ऐसे पदार्थों को जैन परिभाषा में विकृति कहते हैं । 2 जिन पदार्थों में इसी तरह विकृति लाने की बहुत ही शक्ति है ऐसे पदार्थों को महाविकृति कहते हैं । जैन धर्मशास्त्रों के अनुसार विकृतियों की संख्या छ: है । 1 दूध, 2 दही, 3 घी, 4 तेल, 5 गुड और शक्कर (चीनी), 6 तले हुए पदार्थ 13 जब कि महाविग में 1 मक्खन, 2 मधु, 3 मद्य, और 4 मांस का समावेश होता है । जैन श्रावकों जिनकी आत्मा सच्चे श्रावकत्व से वासित है ऐसे जैन महाविगइ के चारों म कार से जीवन पर्यन्त दूर रहते हैं । बाकी जो केवल जन्म से जैन हैं, कर्म से नहीं, जिन्होंने श्रावकत्व की मर्यादा/गरिमा, 1
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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