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________________ जैनदर्शन : वैज्ञानिक दृष्टिसे 49 ईश्वर, प्रकृति, कर्म, या ऐसी ही किसी शक्ति ने मनुष्य को धरती पर भेजा, जल और वायु पर उसके जीवन को अनिवार्य रूप से अवलम्बित किया और कुछ ऐसे उसकी शरीर रचना की कि अपनी सम्पूर्ण अनिच्छा के बावजूद उसे इनका उपभोग करना पड़े । हमारे पास इस बात को सोचने का कोई कारण नहीं कि हवा और पानी पर इस सीमा तक आश्रित बनाने के साथ उसने यह विधान भी बनाया कि इनका स्पर्श मात्र हमें नरक की ओर धकेले । किस ऐश्वर्य की अपेक्षा में, किस सुख की चाह में उसने हमारी विवशता को, हमारी पराधीनता को दयनीय भी बनाने की सोची होगी ? नहीं, अकारण ही उसने हमारे साथ ऐसा धोखा नहीं किया होगा; बल्कि इस तरह का विचार मात्र हमारे सृजनहार पर क्रूरता का आरोप है । प्रकृत्ति के उपादान अपने सहज, स्वाभाविक रूपों में नितान्त निर्विकार और पूर्णत: पापरहित हैं । उनके उपयोग में हमारी लापरवाही, उनके उपभोग में हमारी दूषित मानसिक वृत्ति पाप के करण हैं । वृत्ति बदलने के दुष्कर कार्य का वस्तुएँ बदलने का सहज कार्य के साथ विनिमय हमारी भूल थी, है । हवा को पाका बनाने की कल्पना मन में न आने देने के समय जो बात हमें याद थी पानी के समय उसे हमने विस्मृत कर दिया । ( तीर्थंकर : फरवरी, 91 ) 8. (ब) पाका, अचित या प्रासुक जल : स्वरूप और समस्याएँ फरवरी, 1991 के तीर्थंकर में श्री जतनलाल रामपुरिया का लेख 'मुझे वे न विज्ञान सम्मत लगे, न तर्कसंगत', पढा । यद्यपि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि उनका ज्ञान बहुत कुछ मर्यादाओं से सीमित है, तथापि उन्होंने शंका समाधान की जो पद्धति अपनायी है, उससे लगता है कि वे अपनी मान्यताओं को ही सही मानते है । लेख की शुरूआत में उन्होंने बताया है कि धर्म सार्वजनिक चीज है, विभिन्न प्रदेशों से बहती हुई अथाह जल - राशि है । स्वभावतः उसका प्रदूषित होना कहीं अधिक सहज है । उनकी यह बात शत-प्रतिशत सच है क्योंकि श्रमण भगवन्त महावीर को हुए आज ढाई हज़ार वर्ष से अधिक काल हो गया है और इस बीच भारत में बहुत कुछ राजकीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, एवं धार्मिक परिवर्तन हुए हैं । साथ ही मनुष्य की आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं का ह्रास भी हुआ है । यद्यपि इस सबका प्रभाव उसके धर्म, साहित्य और आचारपरम्परा पर होना भी स्वाभाविक है, तथापि केवल इसी कारण धर्मशास्त्र और उस पर आधारित परम्परा में कुछ भी औचित्य नहीं है, ऐसा कहना ठीक नहीं है । श्री रामपुरियाजी का कहना है- 'पाका पानी, मुँहपत्ती, ओघा, केशलुञ्चन सूखे-हरे एवं ज़मींकन्द के भेद, सुस्ता- असुस्ता आहार एवं कुछ अन्य त्याग-प्रत्याख्यानों का औचित्य समझनें की मैंने बहुत कोशिश की, उनके पक्ष में हर कोण से सोचा मगर मुझे वे न विज्ञान सम्मत लगे और न तर्कसंगत ।' उनका यह विधान न सिर्फ गलत है, बल्कि उनकी आत्मश्लाघा का प्रतीक भी है । मनुष्य चाहे कितना भी ज्ञानी क्यों न हो, उसके ज्ञान की भी सीमाएँ होती है । जब तक वह सर्वज्ञ नहीं होता, तब तक ज्ञान-विज्ञान की एक दो या अधिक शाखाओं में निष्णात तो वह
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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