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________________ 48 Jainism : Through Science चंद बूंदें मिली शिकंजी और कुछ ग्राम चीनी निर्मित शरबत इस तरह की वस्तुओं की लम्बी सूची में-से लिये गये दो उदाहरण हैं । अलग-अलग गुणों की विभिन्न चीजों के जब हमारे मिलाये जाने से पानी अचित्त हो जाता है तब ऐसी चीजों के स्वयं मिल जाने पर वैसा क्यों नहीं होता ? प्रथम दृष्टि में संदर्भहीन लगने वाली यह बात भी उपेक्षणीय नहीं है । श्रावक, श्रोता, थाना, डाकघर, रेल्वे स्टेशन, कानूनी अधिकार-क्षेत्र, नगर निगम और इन सबसे भी बढ़ कर ग्राम का नाम - सब कुछ वही रहते हुए भी हर चातुर्मास के अन्त में कुछ क़दम चल कर हम मान लेते हैं कि हमने गाँव छोड़ दिया है, दूसरे क्षेत्र में आ गये हैं । जब मानने मात्र से एक तथ्यहीन बात हक़ीकत बन जाती है, तब फिर पानी को भी, जो प्रयोगशालाओं के बाहर सचमुच ही अपने शुद्ध रूप में नहीं मिलता अचित्त हुआ मान लेने में क्या विसंगति हो सकती है ? कुछ पंक्तियाँ दूसरी बात के स्पष्टीकरण में । समुद्र एवं नदी-नालों का जल सूर्य की ऊष्मा द्वारा बाष्प में अनवरत परिवर्तित हो कर निरन्तर ऊपर उठा रहता है । यह गर्म भाप ज्यों-ज्यों ऊपर उठती है, क्रमशः ठण्डी होती जाती है । एक स्थिति-विशेष में यही भाप जल की नन्हीं बूंदों में परिवर्तित हो जाती है। ये जलकण आपस में मिल कर एक बड़ी बूंद का रूप लेते हैं, भारी हो जाने के कारण वायुमण्डल में नहीं टिक पाते और वर्षा के रूप में धरती पर आ पड़ते हैं । यह वर्षा छोटे रूप में हर रसोई में हर दिन होती हैं । उफान के बाद दूध को आग से अलग रख दिया जाता है । ऊपर का ढक्कन बाहर की हवा से ठण्डा होता है और उस ढक्कन के संस्पर्श से भाप नन्हीं बँदो में परिवर्तित हो कर ढक्कन की सतह पर चिपक जाती है । यह शुद्ध वर्षा का पानी होता है और जिस तरह वर्षा की बूंदें आकाश से धरती पर आती हैं उसी तरह ये भी ढक्कन को छोड़ कर फिर दूध में जा मिलती हैं । जैसा दूध के साथ घटता है, वैसा ही रसोई में पकने वाली हर चीज के साथ होता है । गीले हाथों से साधु को आहार देना वर्जित है; मगर आहार स्वयं ऐसे पानी के सीधे सम्पर्क में रहता है, इस बात पर किसी का ध्यान नहीं जाता । रेफ्रीजरेटर में रख कर, या बर्फ द्वारा ठण्डी की गयी चीजों के साथ भी ऐसा ही होता है । ऐसी चीजों को किसी बर्तन में डाल कर कुछ क्षणों के लिए खुले वातावरण में छोड़ दिया जाए, तो बर्तन की बाहरी सतह पर सूक्ष्म जलकण दिखायी पड़ते है । इसका कारण है - आस-पास की वायु में उपस्थित जलबाष्प बर्तन की ठण्डी सतह के संस्पर्श में आ कर पानी में परिवर्तित हो जाती है । भीतर का पदार्थ बर्तन से भी ज्यादा ठण्डा होता है और जिसके कारण भाप जल में परिवर्तित हो कर बर्तन के बाहर चिपकती है उसी तरह वह उस पदार्थ में भी (जब तक वह भाप को पानी में परिवर्तित करने लायक ठण्डी रहता है) अनवरत पानी बन कर मिलती रहती है । वर्षा की यही प्रक्रिया है और यह पानी सर्वथा वर्षा के पानी सदृश होता है; मगर इसे हम सचित्त नहीं मानते । बात को दूसरी चिन्तन-तुला पर रखें ।
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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