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________________ Jainism Through Science दशवैकालिक सूत्र की वृत्ति में बताये गये पुद्गल द्रव्य के विभागीकरण की बादर सूक्ष्म, बादर और बादर बादर श्रेणियाँ औदारिक वर्गणा में समाविष्ट होती हैं । 26 यदि हम प्रकाश को सचित्त या तेउकाय मानें तो उसका समावेश बादर - बादर श्रेणी में करना होगा; किन्तु विज्ञान ने बताया है कि प्रकाश के कण ज्यादा सूक्ष्म हैं; अत: उन्हें तैजस् वर्गणा में समाविष्ट करना उपयुक्त है और तैजस् वर्गणा को अन्य वर्गणाओं के साथ सूक्ष्म वर्ग में रखने पर सब कुछ सही प्रतीत होता है । यह ध्यान में रखें कि उपर्युक्त आठों वर्गणाओं के पुद्गल स्कन्ध उत्तरोत्तर अधिकाधिक सूक्ष्मपरिणाम वाले है; अत: प्रकाश सचित्त नहीं है ऐसा मानना सही और तर्कसंगत लगता है । सेनप्रश्न में कहा है कि 'बिजली या दीपक आदि का प्रकाश होने पर, प्रतिक्रमण आदि क्रिया अतिचार-युक्त होती है अर्थात् सम्पूर्णत: निष्फल नहीं बन पाती' । इस वाक्य का भावार्थ मैं अपनी बुद्धि से इस प्रकार करता हूँ । प्रथम तो यह बात जगद्गुरु श्री हीरसूरीश्वरजी के पास से सुनी हुई है ऐसा स्पष्टतया आ. श्री सेनसूरीश्वरजी ने बताया है । उनका अर्थ है कि उसी समय प्राप्त आगमिक और तपागच्छीय अन्य साहित्य में कहीं भी इस बात का सन्दर्भ उपलब्ध नहीं था । दूसरी बात यह कि उन्होंने इसी प्रश्न का उत्तर, आगमिक साहित्य या तपागच्छीय परम्परा के साहित्य में - से देने की बजाय अपने से केवल 200-300 वर्ष पूर्व बनाये गये खतरगच्छीय 'सन्देह दोलावली प्रकरण' में से दिया और कहा कि वह ऐसा बताया गया है । इसका अर्थ यही हुआ कि खतरगच्छ में से यह परम्परा तपागच्छ में आयी हुई है; किन्तु तपागच्छ की अपनी ऐसी कोई परम्परा नहीं थी । तीसरी बात यह कि प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में दीपक या बिजली आदि का प्रकाश, क्रिया करनेवाले मनुष्य पर पड़ने से उसकी क्रिया अतिचार - युक्त बनती है । इसका कारण यह है कि रात्रि के अन्धकार में क्रिया करते समय कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता, ऐसे समय में यदि कहीं से प्रकाश आ जाए तो प्रथम तो ध्यानभंग होता है, चित्त विचलित हो उठता है; दूसरा यह कि प्रकाश के कारण सब वस्तुएँ स्पष्टतया दिखायी पड़ती हैं, इससे क्रिया करने में सुगमता रहती है, अतः क्रिया करने वाले के मन में प्रकाश की इच्छा जागती है, या दीपक या बिजली का प्रकाश हुआ वह 'अच्छा हुआ' ऐसा भाव आ जाता है; अर्थात् प्रकाश करने या दीपक जलाने की क्रिया का अप्रकट अनुमोदन हो जाता है, जबकि क्रिया करनेवाले साधु-साध्वी के लिए करना, कराना और इनका अनुमोदन करना तीनों का निषेध है, अतः अनुमोदन करना भी उपयुक्त नहीं है । लगता है ऐसी परिस्थिति के कारण ही आ. श्री विजय हीरसूरिजी ने कहा होगा बिजली आदि के प्रकाश के कारण क्रिया अतिचारयुक्त होती है । यह हमारा अनुमान है । आधुनिक भौतिक विज्ञान की परिभाषा में तो प्रकाश एक विद्युत् चुम्बकीय तरंग (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्ह) मात्र है और वर्तमान में हमारे वायुमण्डल (एटमॉस्फीयर ) में कई प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय तरंगें हैं । प्रत्येक तरंग, प्रकाश के वेग से अर्थात् 3,00,000 कि.मी. प्रति सेंकड
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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