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________________ 25 जैनदर्शन :वैज्ञानिक दृष्टिसे नवांगी वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरिजी के वचनों का आधार ले कर कहते हैं कि सूर्य, चन्द्र इत्यादि के प्रकाश का सकर्मलेश्यत्व (सजीवत्व) मात्र उपचार से ही है, वस्तुतः वह सजीव नहीं है । सूर्य, चन्द्र इत्यादि के विमानों के पुद्गल स्कन्ध पृथ्वीकाय होने से सचित्त हैं; किन्तु उनका प्रकाश अचित्त है, कुछ एक जीवों को (चन्द्र में) उद्योत नामकर्म का उदय है, अत: उनके शरीर दूर होने पर भी उष्ण नहीं, ऐसा शीतल प्रकाश देते हैं; जबकि कुछ-एक जीवों को (सूर्य में) आतप नाम कर्म का उदय होने से उनके अनुष्ण शरीर, दूर रहने पर भी उष्ण प्रकाश देते हैं; अतः उनके प्रकाश की स्पर्शना में विराधना नहीं होती है । यहाँ पुनः शंका उपस्थित की जाती है कि यदि ऐसा ही है तो बिजली, दीपक इत्यादि के प्रकाश के संबन्ध से भी विराधना होती नहीं है ऐसा कहना चाहिये; क्योंकि बिजली, दीपक इत्यादि का अग्निकाय रूप स्थूल शरीर तो दूर ही होता है । प्रत्युत्तर देते हुए संदेह दोलावली' के टीकाकार कहते है कि अग्निकाय में उद्योत नामकर्म का उदय नहीं है और पृथ्वीकाय न होने से आतप नाम कर्म का भी उदय नहीं है; क्योंकि आगम में बताया गया है कि अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय को ही आतप नामकर्म का उदय होता है । अतः प्रश्न उपस्थित हुआ कि दीपक इत्यादि का प्रकाश दूर-स्थित वस्तुओं को प्रकाशित (उद्योतित) करता है और गर्म भी करता है वह किस तरह ? इसके उत्तर में वाचनाचार्य श्री प्रबोधचन्द्र गणि कहते हैं कि उष्ण स्पर्श के उदय वाले और लोहितवर्ण नामकर्म के उदय वाले प्रकाशयुक्त अग्निकायिक जीव ही आस-पास के विस्तार में फैलते हैं; किन्तु अग्निकाय को प्रभा न होने से और उसके अतिसूक्ष्म होने से उन्हें ही प्रभा के रूप में पहचाना जाता है । वाचनाचार्य श्री प्रबोधचन्द्र गणि का यह अन्तिम उत्तर श्री दशवैकालिक सूत्र की हारिभद्रीय वृत्ति में दिये गये जीवाभिगम सूत्र के पाठ से बिल्कुल विरूद्ध है; और उन्होंने इसके लिए किसी भी आगमिक साहित्य का आधार नहीं दिया है । उन्हों ने स्पष्टतया बताया है कि अग्निकाय के जीव अप्काय यानी पानी के जीवों से भी अधिकतर स्थूल या बादर हैं । तब जल से अधिक सूक्ष्म वायु और वायु से भी अधिक सूक्ष्म ऐसे प्रकाश के कण (फोटोन) को अनिकाय कैसे कहा जाए ? यह एक अत्यन्त विचारणीय प्रश्न है । ___पुद्गल द्रव्य का एक ओर वर्गीकरण वर्गणाओं के रूप में है । वर्गणाओं के मुख्यतः आठ भेद बताये गये हैं 1. औदारिक, 2 वैक्रियक, 3 आहारक, 4. तैजस्, 5 भाषिक, 6 श्वासोच्छ्वासिक, 7 मनस्, 8 कार्मण । देव और नारक को छोड़ प्रत्येक जीव का भवधारणीय शरीर औदारिक वर्गणा के पुद्गल स्कन्धों से निष्पन्न है । देव और नारक के शरीर वैक्रियक वर्गणा के पुद्गल स्कन्धों से निष्पन्न हैं । आहारक लब्धिवान् चतुर्दशपूर्वधर साधु ही आहारक शरीर बनाने के लिए आहारक वर्गणा का उपयोग करते हैं । प्रत्येक संसारी आत्मा प्रति समय तैजस् और कार्मण रूप सूक्ष्म शरीर से युक्त है । भाषा-वर्गणा से आवाज (शब्द) पैदा होती है । श्वासोच्छ्वास-वर्गणा का उपयोग श्वास लेने में किया जाता है । मन के निर्माण एवं विचार करने में मनोवर्गणा का उपयोग होता है ।
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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