SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 Jainism : Through Science बैक्टीरिया मर जाते हैं, इसलिए दही-छाछ की तरह घी का भी त्याग करना होगा, लेकिन हमें ऐसा लगता है कि डॉ. जैन छाछ से घी बनाने की प्रक्रिया में क्या होता है, उसे अच्छी तरह समझ नहीं पाये हैं । छाछ में-से पहले मक्खन निकाला जाता है बाद में उसे ही गरम कर घी बनाया जाता है। 'जैन शास्त्रों की मान्यता है कि छाछ से मक्खन को अलग करने के बाद 48 मिनिट तक उसमें जीवोत्पत्ति नहीं होती है उसके बाद जीवोत्पति होती है, तब वह अभक्ष्य हो जाता है; किन्तु उसमें-से घी निकालने के बाद पुनः जीवोत्पति नहीं होती है अतः घी भक्ष्य है । यद्यपि दही मेंसे छाछ, और छाछ में-से मक्खन निकाल कर, घी बनाने में बैक्टीरिया आदि की जीवहिंसा तो होती हैं, फिर भी सिर्फ इसी कारण से घी अभक्ष्य नहीं बन जाता है । यदि हम ऐसी वस्तुओं का त्याग करना आवश्यक मानेंगे तो पानी और अन्य धान्यादि भी रसोई आदि करने से पूर्व सजीव ही होने से, उनका भी त्याग करने की आपत्ति आती है; अत: पानी भी उबाल कर हम पी नहीं सकेंगे; क्योंकि पानी भी स्वयं सजीव है और साथ-साथ उसमें अन्य जीवाणु-कीटाणु भी विद्यमान होते हैं, और उसे उबालने से, उन सबकी हिंसा का पाप हमें लगता हैं । __जैन परम्परा में 'यतना' ही धर्म (जयणाए धम्मो) है । दशवैकालिक सूत्र' में जब शिष्य को बताया गया कि चलने से हिंसा होती है; खड़े रहने, बैठने और सोने से भी हिंसा होती है बोलने और आहार करने से भी हिंसा होती है । तब शिष्य प्रश्न पूछता है कि यदि चलने, खड़े रहने, बैठने, सोने, बोलने और आहार करने से जीव-हिंसा होती है तो हमें जीवन कैसे व्यतीत करना चाहिये? कहं चरे ? कहं चिठे ? कहमासे ? कहं सए ? कहं भुंजंतो ? भासंतो ? पावं कम्मं न बंधई ? ___- दशवैकालिक सूत्र; अध्ययन-4, गाथा-7 इसके उत्तर में कहा गया है कि - जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए । जयं भुंजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ॥ - दशवकालिक सूत्र; अध्ययन-4, गाथा - 8 यतना से चलना, यतना से खड़े रहना, यतना से बैठना, यतना से सोना, यतना से बोलना और आहार करना, जिससे पापकर्म का बन्ध न हो । इस तरह जैनधर्म में 'यतना' मुख्य है; अतः अल्प-से-अल्प सावध व्यापार द्वारा जीवननिर्वाह करने की सूचना शास्त्रकारों ने दी है, जो यतना के अधिक-से-अधिक पालन द्वारा ही सफल हो सकती हैं। जमीकन्द डॉ. जैन ने ज़मीकन्द के बारे में भी बहुत से प्रश्न उठाये हैं । उनका कहना है कि ज़मीकन्द
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy