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________________ जैनदर्शन :वैज्ञानिक दृष्टिसे वर्ष पूर्व नहीं बल्कि तीन सागरोपम वर्ष पूर्व होने की संभावना को असत्य नहीं मानना चाहिये । ___ ठीक इसी तरह महापुरूषों की अवगाहना के बारे में कोई संशय करना उपयुक्त नहीं है; बल्कि उसे अच्छे वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध करने की आवश्यकता है। चलित रस चलित रस के बारे में डॉ. जैन ने दही का प्रश्न उपस्थित किया है । आमतौर से यह मान्यता भी प्रचलित है कि दही बिना बैक्टीरिया के जमता नहीं है और बैक्टीरिया सजीव होने के कारण, दही नहीं खाना चाहिये; किन्तु बेक्टीरिया कई तरह के होते हैं । माइक्रोबायॉलॉजी के अध्ययन से हमें विदित होता है कि कुछ बैक्टीरिया जो कभी-कभी दूध आदि में पाये जाते हैं, वे किसी भी उपाय से मरते नहीं हैं, चाहे दूध आदि को आधे घंटे तक ही क्यों न उबाला जाए; क्योंकि इस प्रकार के बैक्टिरिया, अपने पर्यावरण का तापमान बढ़ते ही अपने चारों ओर एक सुरक्षा कवच बना लेते हैं, और जब तक तापमान अनुकूल नहीं हो जाता तब तक कवच में सुषुप्त बने रहते हैं । दूध में से दही बनाने वाले बैक्टीरिया भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं । हमारे शरीर में भी बहुत से बैक्टीरिया और जीवाणु-कीटाणु हैं । दही के बजाय दूध लेने पर भी, वही दूध जब पेट में जाता है, तब वहाँ भी हाइड्रोक्लोरिक से युक्त होने से, दही में रूपान्तरित हो जाता है; अतः हमें मानना चाहिये कि दही में बैक्टीरिया होने पर भी, उसका भोजन में उपयोग किया जा सकता है, क्योंकि उन्हें अपने जीवन के लिए अनुकूल पर्यावरण हमारे शरीर में भी प्राप्त है, अत: उनकी मृत्यु नहीं होती; इसलिए दही का निषेध जैन शास्त्रों में नहीं किया गया है; किन्तु वह दही दो रात बीत जाने पर अभक्ष्य हो जाता है; क्योंकि उसमें दही बनाने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि अत्यधिक मात्रा में हो जाती है और अन्य प्रकार के जीवाणु-कीटाणुओं की उत्पति की भी आशंका बन जाती है। वैज्ञानिक दृष्टि से सभी खाद्य पदार्थ अल्पाधिक प्रमाण में वायरस और बैक्टीरिया से युक्त होते हैं; अतः कोई भी पदार्थ हमारे लिए भक्ष्य नहीं बन पाता, किन्तु सिर्फ बैक्टीरिया होने से ही सभी पदार्थ अखाद्य नहीं हो जाते । __यह तो सिर्फ जीव-विज्ञान की दृष्टि से देखा; किन्तु आरोग्य विज्ञान की दृष्टि से भी, दूध की तुलना में दही ज्यादा सुपाच्य है । यद्यपि जैन शास्त्रों में साधु-मुनियों को स्पष्टरूप से बिना कारण दूध, दही, घी आदि विगइ (विकृतियों) का उपयोग करने की छूट नहीं है । सिर्फ ग्लान-अशक्त और स्वाध्याय ध्यान में अत्यधिक प्रवृतिशील मुनि ही आचार्यादि गीतार्थों की आज्ञानुसार इन विकृतियों का उपयोग कर सकते हैं । ये सब विकृतियाँ अपने नामानुसार मन और शरीर में विकार पैदा करने में समर्थ होने से इस तरह का निषेध किया गया है। अतः स्वस्थ मनुष्य के लिए घी, दूध, दही आदि अधिक मात्रा में लेना योग्य नहीं है। दही और छाछ के साथ-साथ डॉ. जैन ने घी का भी प्रश्न उपस्थित किया है । वे कहते हैं कि छाछ में-से घी निकालने के लिए छाछ को बिलोना पड़ता है और इसी प्रक्रिया में बहुत से
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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