SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा १०-११ संभव है ||९|| किञ्च अप्पेगे वइ जुंजंति, नगिणा 1 पिंडोलगाहमा । मुंडा कंडूविणडुंगा 2 उज्जल्ला असमाहिता - 112011 छाया - अप्येके वचो युजन्ति नग्नाः पिण्डोलगा अधमाः । मुण्डा कण्डूविनष्टाङ्गा उशब्भा असमाहिताः ॥ अन्वयार्थ - (अप्पेगे) कोई-कोई (वइ जुंजंति) कहते हैं कि (नगिणा) ये लोग नंगे हैं (पिण्डोलगा) परपिंडप्रार्थी हैं (अहमा) तथा अधम हैं। (मुंडा) ये मुण्डित हैं (कंडूविणटुंगा) और कण्डूरोग से इनके अङ्ग नष्ट हो गये हैं (उज्जल्ला) ये शुष्क पसीने से युक्त और (असमाहिता) बीभत्स हैं । भावार्थ- कोई पुरुष, जिनकल्पी आदि साधु को देखकर कहते हैं कि 'ये नंगे हैं, परपिंडप्रार्थी हैं तथा अधम हैं। ये लोग मुंडित तथा कंडुरोग से नष्ट अंगवाले मल से युक्त और बीभत्स हैं । टीका अप्येके केचन कुसृतिप्रसृता अनार्या वाचं युञ्जन्ति - भाषन्ते, तद्यथा एते जिनकल्पिकादयो नग्नास्तथा 'पिंडोलग'त्ति परपिण्डप्रार्थका, अधमाः मलाविलत्वात् जुगुप्सिता 'मुण्डा' लुञ्चितशिरसः, तथा क्वचित्कण्डूकृतक्षतै रेखाभिर्वा विनष्टाङ्गा विकृतशरीराः, अप्रतिकर्मशरीरतया वा क्वचिद्रोगसम्भवे सनत्कुमारवद्विनष्टाङ्गास्तथोद्गतो जल्लः - शुष्कप्रस्वेदो येषां ते उज्जला:, तथा 'असमाहिता' अशोभना बीभत्सा दुष्टा वा प्राणिनामसमाधिमुत्पादयन्तीति ॥१०॥ - - - साम्प्रतमेतद्भाषकाणां विपाकदर्शनाया ह टीकार्थ कुमार्ग में चलनेवाले कोई अनार्य्य पुरुष कहते हैं कि 'ये जिनकल्पी आदि नंगे हैं तथा परपिंडप्रार्थी है । ये लोग मल से भरे हुए घृणास्पद हैं, तथा लुञ्चितशिर हैं । कहीं-कहीं कण्डुरोग के घाव से अथवा उसकी रेखा से इनके अङ्ग नष्ट हो गये हैं । ये विकृत शरीर हैं अथवा अपने शरीर का प्रतिकर्म (स्नान आदि से परिशोधन) नहीं करने से रोग की उत्पत्ति द्वारा सनत्कुमार की तरह अंग नष्ट होना संभव है, इसलिए ये लोग नष्ट अंगवाले हैं। ये लोग शुष्क पसीनों से युक्त हैं तथा ये बीभत्स दुष्ट और प्राणियों को असमाधि उत्पन्न करते हैं ॥१०॥ - - — उपसर्गाधिकारः जो लोग साधु के लिए ऐसी बातें कहते हैं, उनको इसका फल प्राप्त होता है । वह दिखाने के लिए सूत्रकार कहते हैं एवं विप्पडिवन्नेगे, अप्पणा उ अजाणया । तमाओ ते तमं जंति, मंदा मोहेण पाउडा - - ।।११।। छाया एवं विप्रतिपन्ना एक आत्मनातत्त्वज्ञाः । तमसस्ते तमो यान्ति मब्दाः मोहेन प्रावृत्ताः ॥ अन्वयार्थ - ( एवं ) इस प्रकार (विप्पडिवन्ना) साधु और सन्मार्ग के द्रोही (एगे) कोई (अप्पणा उ अजाणया) स्वयं अज्ञ जीव (मोहेण पाउडा ) मोह से ढके हुए हैं (मंदा) मूर्ख है (ते) वे (तमाओ ) अज्ञान से निकलकर (तमं) फिर अज्ञान में ही (जंति) जाते हैं। भावार्थ - - इस प्रकार साधु और सन्मार्ग से द्रोह करनेवाले स्वयं अज्ञानी, जीव मोह से ढके हुए मूर्ख हैं और वे एक अज्ञान से निकलकर दूसरे अज्ञान में प्रवेश करते हैं । टीका 'एवम्' अनन्तरोक्तनीत्या 'एके' अपुण्यकर्माणो 'विप्रतिपन्नाः ' साधुसन्मार्गद्वेषिणः 'आत्मना' 1. पिण्डेसु दीयमानेसु उल्लेति अधमा अधमजातयः चू. 2. उज्जाताः नष्टाः चू. १८९
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy