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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा ९ उपसर्गाधिकारः उस समय (मंदा) मन्दमति पुरुष (विसीयंति) इस प्रकार विषाद करते हैं जैसे (तेउपुट्ठा) तेज - अग्नि के द्वारा स्पर्श किया हुआ ( पाणिणो ) प्राणी घबराता है । भावार्थ - भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए क्षुधित साधु को कोई क्रूर प्राणी कुत्ता आदि काटता है, तो उस समय मूर्ख प्रव्रजित इस प्रकार दुःखी हो जाते हैं- जैसे अग्नि के स्पर्श से प्राणी घबराते हैं । टीका 'अप्पेगे' इत्यादि, अपिः संभावने, एकः कश्चिच्छ्वादि: लूषयतीति लूषकः प्रकृत्यैव क्रूरो भक्षक: 1 खुधियन्ति क्षुधितं बुभुक्षितं भिक्षामन्तं भिक्षु 'दशति' भक्षयति दशनैरङ्गावयवं विलुम्पति 'तत्र' तस्मिन् श्वादिभक्षणे सति 'मन्दा' अज्ञा अल्पसत्त्वतया 'विषीदन्ति' दैन्यं भजन्ते, यथा 'तेजसा' अग्निना 'स्पृष्टा' दह्यमानाः 'प्राणिनो' जन्तवो वेदनार्त्ताः सन्तो विषीदन्ति - गात्रं सङ्कोचयन्त्यार्त्तध्यानोपहता भवन्ति, एवं साधुरपि क्रूरसत्त्वैरभिद्रुतः संयमाद् भ्रश्यत इति, दुःसहत्वाद्ग्रामकण्टकानाम् ॥८॥ टीकार्थ यहां 'अपि' शब्द संभावनार्थक है । एक यानी कुत्ता आदि जीव जो स्वभाव से ही क्रूर अर्थात् काटनेवाला है वह, क्षुधातुर और भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए साधु को यदि काटता है अर्थात् दांतों से उनके अङ्गों को विदारण करने लगता है तो उस समय यानी कुत्ते के काटने के समय अल्प पराक्रमी मंदमति प्रव्रजित दीन हो जाते हैं। जैसे अग्नि से जलते हुए प्राणी वेदना से आर्त्त होकर विषाद करते हैं और वे अपने अङ्गों को संकुचित करते हुए आर्त्तध्यान करते हैं। उसी तरह साधु भी क्रूर प्राणियों के आक्रमण से पीड़ित होकर संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं क्योंकि ग्राम कंटको को सहन करना बड़ा कठिन होता है ||८|| पुनरपि तानधिकृत्याह - फिर सूत्रकार ग्रामकंटकों के विषय में कहते हैं अप्पेगे पडिभासंति, पडिपंथियमागता । पडियारगता 2 एते, जे एते एव जीविणो छाया - अप्येके प्रतिभाषन्ते प्रातिपथिकतामागताः । प्रतिकारगता एते य एते एवं जीविनः ॥ अन्वयार्थ - (पडिपंथियमागता) साधु के द्वेषी (अप्पेगे) कोई-कोई ( पडिभासन्ति ) कहते हैं कि (जे एते) जो ये लोग (एव जीविणो ) इस प्रकार - भिक्षावृत्ति से जीवन धारण करते हैं (एते) ये लोग (पडियारगता) अपने पूर्वकृत पाप का फल भोग रहे हैं । भावार्थ - साधु के द्रोही पुरुष साधु को देखकर कहते हैं कि भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करने वाले ये लोग अपने पूर्वकृत पाप कर्म का फल भोग रहे हैं । टीका अपिः संभावने, 'एके' केचनापुष्टधर्माण: अपुण्यकर्माणः 'प्रतिभाषन्ते' ब्रुवते, प्रतिपथ: प्रतिकूलत्वं तेन चरन्ति प्रातिपन्थिका:- साधुविद्वेषिणस्तद्भावमागताः कथञ्चित् प्रतिपथे वा दृष्टा अनार्या एतद् ब्रुवते, सम्भाव्यत एतदेवंविधानां, तद्यथा प्रतीकारः - पूर्वाचरितस्य कर्मणोऽनुभवस्तमेके गताः - प्राप्ताः स्वकृतकर्मफलभोगिनो 'य एते' यतयः 'एवं जीविन' इति परगृहाण्यटन्ति अतोऽन्तप्रान्तभोजिनोऽदत्तदाना लुञ्चितशिरसः सर्वभोगवञ्चिता दुःखितं जीवन्तीति ॥९॥ - 9/1 11811 - टीकार्थ 'अपि' शब्द सम्भावनार्थक है । कोई-कोई पाप कर्म वाले पुरुष, जो साधुओं के प्रति प्रतिकूल आचरण करते हैं, तथा जो किसी कारण वश साधु से द्वेष करते हैं अथवा जो असन्मार्ग में चलनेवाले अनार्य हैं, वे यह कहते हैं कि “भिक्षा के लिए दूसरों के मकानों में घूमनेवाले, अन्तप्रान्त भोजी, दिया हुआ ही आहार लेनेवाले शिर का लोच करने वाले, सब भोगों से वंचित रहकर दुःखमय जीवन व्यतीत करने वाले जो ये यति (साधु) लोग हैं, ये अपने पूर्वकृत पापकर्म का फल भोग रहे हैं।" इस प्रकार अनार्य्य पुरुषों का साधु के प्रति कथन 1. जुज्झितं प्र. झज्झियं चू. 2. तद्दारवेयणिज्ज ते चू० -
SR No.032699
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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