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________________ व्यापार चतुर, मेधावी एवम् सज्जन व्यकि थे। परोपकार एवं धार्मिकता की ओर आपका बहुत ध्यान था। आपके समय में आपके घर में रुपयों को कदाई में भरते थे। इसका मतलब यह है कि उस समय आप के पास बहुत सा रुपया आता था । आपका स्वर्गवास सं० १९५७ में होगया। आपके पांच पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः धनराजजी, सदासुखजी, हीरालालजी, मंगलचन्दजी, चंदनमलजी, और आनन्दीलाल जो थे। इनमें से सदासुखजी और हीरालालजी का स्वर्गवास होगया। शेष सब भाई वर्तमान है। भाप लोगों के परिवार वाले फतेहपुर तथा कलकत्ता में निवास करते हैं और वायदे का काम करते हैं। सेठ धनराजजी-आप पहले कलकत्ता आया करते थे। मापने भी अपने जीवन में वायदे के बहुत बड़े २ सौदे किये। मानकल आप वयोवृद्ध होने से देश ही में रहते हैं और वहीं थोड़ा र सौदा किया करते हैं। आपके तीन पुत्र हैं जिनके नाम जवेरीमलजी, रामचन्दजी एवम् हुलासमलजी हैं। भाप तीनों भाई भी आज कल अलग २ होगये हैं एवम् अलग अलग अपना व्यापार करते हैं। सेठ जवेरीमलजी-आपका जन्म संवत् १९३५ के करीब का है। आपने भी यहां अपने जीवन में वायदे का अच्छा काम किया। वर्तमान में आप भी वयोवृद्ध होने से फतेपुर ही रहते हैं। आपका : ध्याम धार्मिकता की ओर बहुत हैं। आपके सोहनलालजी एवम् मवरलालजी नामक र पुत्र हैं। सेठ सोहनलालजी-आपका जन्म संवत् १९५२ की जेठ वदी का है। आप प्रारम्भ से ही पही वायदे का व्यापारमा रहे हैं। आप भी इस विषय में बड़े अनुभवी एवम् नामी व्यक्ति हैं। हज़ारों लाखों रुपये खो देना और कमा लेना आपके बायें हाथ का खेल है। आप बड़े मिलनसार, सवार, दानी एवम् सरल स्वभावी सजन हैं। आपने कई समय अनेक संस्थाओं को बहुत सा रुपया दान स्वरूप प्रदान किया है। सेठ मँवरलालजी-आपका जन्म संवत् १९६० का है। आप भी अपने भाई सोहनलालजी के साथ व्यापार करते हैं। आपभी बड़े योग्य सजन हैं। भापके चार पुत्र हैं जिनके नाम रतनलालजी, शुभकरणजी, जगतसिंहजी और कमलसिंहजी हैं। इनमें दो पढ़ते हैं। सेठ बनेचन्द जुहारमल दूगड़, तिरमिलगिरी (हैदराबाद) इस खानदान के लोग स्थानकवासी भाम्नाय को मानने वाले हैं। आपका मूल निवासस्थान नागौर का है। इस खानदान को दक्षिण हैदराबाद में आये हुए करीब ९० वर्ष हुए। इसके पहले इस खानदान ने बंगलोर में जाकर अपनी फर्म स्थापित की थी तथा तिरमिलगिरी (सिकन्दराबाद ) में पहले पहल सेठ नेचन्दजी मे आकर दुकान खोली । बनेचन्दजी का स्वर्गवास हुए करीब
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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