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________________ श्रोसवाल जाति का इतिहास सितारा बहुत तेजी पर था संवत् १८७२ में जब मीरखां के सिपाहियों ने सिंघवी इन्द्रराजजी और देवनाथजी को कल कर डाला, उस समय उसकी चढ़ी हुई ९॥ लाख की रकम में से पौने पांच लाख रुपये मेहता अलैचन्दजी ने और पौने पांच लाख जोशी श्री कृष्णजी और सेठ राजारामजी गदिया ने मीरखां को देकर बिदा किया। इन्दराजजी के करल हो जाने पर दीवानगी का ओहदा खालसे होगया, और उस स्थान का संचालन मेहता अखैचन्दजी के जिम्मे किया गया। इसके तीन मास पश्चात् इन्दराजजी के पुत्र सिंघवी फतेरोजजी दीवान बनाये गये। संवत् १८७३ में चैत मास में कई सरदारों के प्रयत्न से राजकुमार सिंहजी राजगद्दी पर बिठाये गये और मेहता अखैचन्दजी संवत् १८७३ की बैसाख सुदी ५ को उनके दीवान बनाये गये । मगर महाराज छत्रसिंहजी, का देहान्त केवल ग्यारह महीने पश्चात् १८७४ की चैत सुदी ४ को होगया, और उसी साल के श्रावण में मेहता अखैचन्दजी की जगह उनके पुत्र लक्ष्मीचन्दजी दीवान बनाये गये। संवत् १४७५ में मेहता अखै वन्दजी ने राज्य के ठिकानों में से एक एक २ गाँव पट्टे से छुड़ा लिया जिससे राज्य की आमदनी तीन लाख बढ़ गई । उस समय महाराज मानसिंहजी ने कहा कि हमारा हुक्म भखैचन्द पर, और अखैचन्द का हुक्म सब पर रहे। इनकी मरजी के बिना खजाने में कोई जमा खरच न होने पावे। इन सब बातों से मेहता अखैचन्दजी की शक्ति, उनके प्रबल प्रभाव और जबर्दस्त कारगुजारी का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इस सारे वातावरण में धीरे २ मेहता अखैचन्दजी के विरोधियों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी जिसके परिणाम स्वरूप सम्बत् १८७६ की बैसाख बदी ६ को वे एकाएक गिरफ्तार कर लिए गये । उनके पश्चात् उनके पुत्र लक्ष्मीचन्दजी, पौत्र मुकुन्ददासजी और कामेती रामचन्द्रजी भी गिरफ्तार कर लिए गये तथा उनका सारा घर लूट लिया गया। उसके एक मास पश्चात जेठ सदी १४ को उनके पास हलाहल विष का प्याला पीने के लिए भेजा गयो । मेहता अखैचन्दजी ने जीवनदान के बदले पच्चीस लाख रुपया देना चाहा मगर उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और वे अपने आठ साथियों सहित हलाहल विष का पान कर इस लोक से विदा हुए। संवत् १८७९-८० में अखैचन्दजी के बेटे लक्ष्मीचन्दजी और पोते मुकुन्ददासजी ३० हजार रुपये लेकर छोड़े गये। .. मेहता लक्ष्मीचन्दजी-भाप मेहता अखैचन्दजी के पुत्र थे आपका जम्म सम्वत् १४५० में हुआ। १८७४ में आप पहले पहल दीवान बनाये गये। उसके पश्चात सम्बत १९०७ तक आप करीब चार पाँच के और दीवान बने । करीब ९ साल तक आप दीवान रहे । १९०७ में भापका स्वर्गवास हुमा । भापको
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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