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________________ 'भोसनाक आति का इतिहास में मोर्चा बंदियों और कड़ाइयाँ होती रहीं । अब संवत् १८६० की काती सुदी ४ को जोधपुर में महाराजा भीमसिंहजी का स्वर्गवास हो गया और राज्य का अधिकारी कोई न रहा, ऐसे समय में जोधपुर स्थित प्रधान ओहदेदारों ने भंडारी गंगारामजी तथा सिंघवी इन्द्रराजजी को घेरा बनाये रहने का आदेश किया। लेकिन इन वीरों मे तमाम परिस्थिति को सोचकर और राज्य का हकदार एक मात्र महाराजा मानसिंहजी को ही मानकर मोरचाबंदी तथा घेरा उठा दिया और स्वयं गढ़ में जाकर मानसिंहजी की मिछरावलकी, तथा जोधपुर चलकर राज्यासन पर विराजने के लिये भरज की । इसी तरह जोधपुर के अधिकारियों तथा सरदारों को भी महाराजा मानसिंहजी को ही राज्यासन पर बैठाये जाने की सूचना भेजी और उन्होंने उन्हे विश्वास दिलाया कि मानसिंहजी तुम्हारे पर किसी प्रकार की सख्ती नहीं करेंगे। इस प्रकार आप लोगों ने मानसिंहजी को सम्बत १८६० के मगसर मास में राज्यासन पर अधिष्ठित कराया । इनकी इन बहुमूल्य सेवाओं से प्रसन्न होकर दरबार मानसिंहजी ने इन्हें दीवानगी का सम्मान, सिरोपाव, कुरुब और बणाड़ नामक गाँव तथा ख़ास रुका इनायत किया, जिसमें महाराजा ने अपने राज्यासीन होने के कार्य्यं में भंडारी गंगारामजी ने जो बहुमूल्य सेवाएं की थी उनका कृतज्ञता पूर्वक उल्लेख किया । सम्बत १८६३ के फाल्गुन मास में जोधपुर के इतिहास में एक नवीन घटना घटी। महाराजा मानसिंहजी को राज्यासन पर बैठे थोदा ही समय हुआ था, और वे अपने सरदार मुस्सुद्दियों के बीच का मनोमालिन्य दूर भी नहीं कर पाये थे, कि इसी बीच इन्होंने अपने दीवान भंडारी गंगारामजी और फौज के प्रधान सिंघवी इन्द्रराजजी को उनके पुत्रों सहित गिरफ्तार कर किया । इस प्रकार के अनेक कारणों से राज्य में बड़ी गढ़बड़ी मची हुई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि मारवाड़ के सरदारों ने सिंहजी को राज्य का स्वामी मान कर उपद्रव उठाया। वे जयपुर और बीकानेर की लगभग १ लाख फोज को जोधपुर पर चढ़ा लागे । जब इस विशाल सेना ने जोधपुर पर घेरा डाला, और राज्य के बचने की किसी तरह उम्मीद न रही, तब ऐसे कठिन समय में महाराजा मानसिंहजी उक्त आपत्ति से अपनी रक्षा करने की चिन्ता में पड़े। ऐसी स्थिति में उन्हें सिवाय भण्डारी गंगारामजी और सिंघवी इन्द्रराजजी के दूसरा अपना कोई सहायक न दिखा। फलतः महाराजा मानसिंहजी ने उनके पुत्रों को क़ैद में रखकर इन दोनों वीरों को बुलाया तथा इस आपत्ति से अपने राज्य की रक्षा करने की अभिलाषा दर्शायी । इस पर इन दोनों मुत्सद्दियों मे दरबार को सब प्रकार से परिस्थिति ठीक कर देने का विश्वास दिलाया तथा उसी समय वे इस प्रयत्न में लग गये। इस जगह इस बात का उल्लेख करना आवश्यकीय होगा कि भंडारी गंगारामजी को अपने एवज़ में अपने पुत्र को गिरफ़्तार रखने की महाराज मानसिंहजी की नीति पर १४४
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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