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________________ धार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति कहते हैं । यह सिरोही राज्य के बहुत पुराने स्थानों में से यह एक है। अब तक इस राज्य के जितने शिकालेख मिले हैं उनमें सबसे पुराना वि०सं०६०२ का यहीं से मिला है। मेवाद के सुप्रसिद्ध महाराणा कुम्म ने यहाँ की पहाड़ियों पर एक गढ़ बनवाया था। जान पड़ता है कि इसी से बसंतपुर के स्थान में वसंतगद नाम स्थापित हुआ । यहाँ के एक टूटे जैन मन्दिर में वि० सं०४ के समय की मूर्तियां भी मिली हैं। केशरियाजी तीर्थ-यह जैनियों का अत्यन्त प्रख्यात तीर्थ स्थान है। उदयपुर से लगभग १० मील की दूरी पर घुलैवा नामक गाँव में श्री ऋषभदेव स्वामी का एक बड़ा ही भव्य और विशाल मन्दिर बना हुआ है। उक्त मन्दिर में बड़ी ही प्रभावोत्पादक ऋषभदेवजी की मूर्ति है। यह मूर्ति बहुत प्राचीन है। इसके पहले यह प्रतिमा डूंगरपुर राज्य की प्राचीन राजधानी बड़ौद (षटपद्रक) नामक जैन मन्दिर में थी। जान पड़ता है कि किसी विशेष राजनैतिक परिस्थिति के कारण उक्त मूर्ति बदौद से यहाँ लाकर पधराई गई। जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं कपमदेवजी की उक्त प्रतिमा बड़ी भव्य और तेजस्वी है। इसके साथ के विशाल परिकर में इन्द्रादि देवताओं को मूर्तियाँ बनी हुई हैं और दो बाजुओं पर दो नग्न काग्स (कार्योत्सर्ग स्थिति वाले पुरुष) खदे हुए हैं। मूर्ति के चरणों के नीचे छोटी २ नौ मूर्तियाँ हैं जिनको कोग नवग्रह या नवनाथ बतलाते हैं। उक नवग्रहों के नीचे कुछ सपने खुदे हुए हैं। इस मन्दिर के मण्डप में तीर्थहरों की बाइस और देव कुलिकाओं की चौपन मूर्तियाँ विराजमान हैं। देव कुलिकाओं में वि० सं० १०५६ की बनी हुई विजयसागरसूरि की मूर्ति भी है और पश्चिम की देव कुलिकाओं में से एक में करीब ६ फीट ऊँचा ठोस पत्थर का मन्दिर बना हुआ है, जिसपर तीर की बहुतसी छोटी २ मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसको लोग गिरनारजी का विम्ब कहते हैं। उक. मूर्तियों में से १९ मूर्तियों पर लेख खुदे हुए हैं। ये लेख वि० सं० १६1 से लगाकर वि० सं० १८६३ तक के हैं और वे जैनों के इतिहास के लिए बड़े उपयोगी हैं। ... इस मन्दिर में केशर बहुत चढ़ती है। इसीसे तीर्थ का दूसरा नाम केशरियानाथ भी है। यात्री लोग यहाँ पर केशर की मानसा करते हैं। कोई २ जैन तो अपने बच्चों के बराबर केशार तौल कर मूर्तियों पर चढ़ा देते हैं। जैनियों के सिवाय भील आदि भी इस मूर्ति पर केशर चढ़ाते हैं। इस मूर्ति का रंग काला होने से भील लोग इसे कालाजी के नाम से पुकारते हैं। वे इन्हें अपना इष्टदेव समझते।। इस मन्दिर में कई बातें बड़ी विचित्र हैं। यहाँ पर ब्रह्मा और शिव की मूर्तियाँ भी विराजमान हैं और एक हवनकुण्ड भी बना हुआ है । जहाँ पर नवरात्रि के दिनों में दुर्गा का हवन होता है। पर जान पड़ता है कि ये सब बातें पीछे से उक्त मन्दिर में जोड़ दी गई हैं। इस मन्दिर की मूर्ति पर सोने, चांदी और जवाहरात की अंगी चढ़ाई जाती है जिनमें कुछ अंगियों की कीमत एक लाख से भी ऊपर की है। हाल में उदयपुर के भूतपूर्व महाराणा फतेसिंहजी ने कोई ढाई लाख की कीमत की अंगी चढ़ाई थी। इस मंदिर में प्रायः श्वेताम्बर विधि से पूजा होती है क्योंकि अंगी, केशर आदि का चढ़ना ये सब बातें श्वेताम्बर विधि ही में सम्मिलित हैं। गत तीन सौ वर्षों के विभिन्न प्रकार के लेखों से यह प्रतीत होता है कि इस मन्दिर में इसी विधि से पूजा होती आई है। • संवत् १८६३ में विजयचंद गांधी ने इस मन्दिर के चारों तरफ एक पक्का कोट बनवाया । वि० सं० १८८६ २४
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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