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________________ ओसवाल जाति का इतिहास देरासरों के अतिरिक्त जैसलमेर में कई उपासरे हैं जिनमें बेगड-गछ उपासरा, वृहत् खरता गच्छ उपासरा, तपगच्छ उपासरा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। लोद्रवा के जैन मंदिर ___ अभी तक हमने जैसलमेर के किले तथा शहर के जैन मंदिरों का उल्लेख किया है । अब हम लोदवा के जैन मंदिरों पर कुछ ऐतिहासिक प्रकाश डालना चाहते हैं। लोद्रवा एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है। प्राचीनकाल में यह स्थान लोढ़ नामक राजपूतों की राजधानी थी। वर्तमान में इन्हें लोधा कहते हैं । संवत् ९०० के लगभग रावल देवराज भाटी ने इन लोढ़ा राजपतों से लोगवा छीनकर वहाँ पर अपनी राजधानी कायम की। उस समय यह नगर बड़ा समृद्धिशाली था। इसके बारह प्रवेश द्वार थे। प्राचीन काल से ही यहाँ पर श्री पार्श्वनाथजी का मंदिर था । रावल भोज देव के गही बैठने के पश्चात् उनके काका जैसल ने महम्मद गौरी से सहायता लेकर लोदवा पर चढ़ाई की । इस युद्ध में भोज देव मारे गये और लोद्रवा नगर भी नष्ट हो मया। पश्चात् राव जैसल ने लोद्रवा से राजधानी हटाकर संवत् १२१२ में जैसलमेर नाम का दुर्ग बनाया। ओसवाल वंशीय सुप्रख्यात् दानवीर सेठ थीहरूशाहजी ने, श्री पार्श्वनाथजी के उक्त मंदिर का, जो लोद्रवा के विध्वंश के साथ नष्ट हो गया था, पुनरुद्धार करवाकर खस्तरगच्छ के श्री जिनराजपूरि से उसकी प्रतिष्ठा करवाई। यह मंदिर भी अत्यन्त भव्य और उचश्रेणी की कला का उत्तम नमूना है। इस मंदिर के कोने में चार छोटे २ मंदिर हैं। उनमें से उत्तरपूर्व के तरफ के मंदिर में एक शिलालेख रक्खा हुआ है। इसका कुछ अंश टूट गया है। इसकी लम्बाई चार फीट और चौड़ाई डेढ़ फीट से कुछ अधिक है। सुप्रख्यात् पुरातत्वविद बाबू पूरणचन्दजी नाहर एम० ए० बी० एल० का कथन है कि आज तक जितनेशिलालेख उनके रष्टिगोचर हुएहैं तथा जितने अन्यत्र प्रकाशित हुऐ हैं उनमें से किसी में भी अपनी पहावली का शिलालेख देखने में नहीं आया है। इसशिला लेख में श्री महावीरस्वामी से लेकर श्री देवर्द्धिगण क्षमा-श्रमण तक आचार्य गण और उनके शिष्यों के चरण सहित नाम खुदे हुए हैं । श्री महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् ९८० वर्ष म्यतीत होनेपर श्री देवदिगिणजी ने जैनागम को लेख बद्ध किया था। इनके विषय में श्रीकल्पसूत्रादि में जो कुछ संक्षिप्त परिचय मिलता है, उससे अधिक अद्यावधि कोई विशेष इतिहास ज्ञात नहीं हुआ है । इस शिलालेख में कुल चरणों की समष्टि १०९ है, परन्तु देवर्द्धिगण के नाम के बाद जो ., १० खुदा हुभा है, वह संकेत समझ में नहीं आया। इसके सिवाय शिलालेख के आदि में दक्षिण की तरफ
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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